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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
और अभी तो सभी नूरवालों को देखो न, हर जगह कितने ही घूमते हैं न! नहीं? मना कर रहा है न?
दो गुण, एक नामकर्म अच्छा होना चाहिए और दूसरा भाव अच्छे होने चाहिए, तो हम जान जाएँगे कि असल खानदानी हैं। किसी में दोनों ही (गुण) हों तो उसका खानदानीपन पहचाना जाता है। बगैर नामकर्म का सारा ही भाव बेकार है। नामकर्म की तो भगवान ने भी तारीफ की है। उन्हें नामकर्म कब मिलता है? कितने उच्च प्रकार के कर्म बाँधे हों, तब ऐसा नामकर्म उत्पन्न होता है।
__ आदेय-अनादेय नामकर्म नामकर्म के तो बहुत प्रकार हैं। आदेय नामकर्म। अगर आदेय नामकर्म हो तो जब ये साहब कहीं जाएँ तो घर में घुसने से पहले तो घर के सभी लोग कहते हैं, 'अरे! पधारिए, पधारिए, पधारिए, पधारिए।' अभी तो घर में घुसे भी नहीं है और सीढ़ियाँ चढ़ रहे हैं, उससे पहले तो घर के सभी लोग 'पधारो, पधारो' कहते हैं। अरे, ऐसा क्या है लेकिन? आदेय नामकर्म लेकर आए हैं। हमारे पास यह सामान भी है। उसके सामने अनादेय नामकर्म भी होता है वापस। अर्थात् अगर कोई सेठ हो, और उनका साला आए न, अब तीन महीने बाद आया है बेचारा, फिर भी सीढ़ियाँ चढ़ते समय कोई ऐसा नहीं कहता कि 'आइए'। वह अपने आप ही घर में आ जाता है। पचास साल की उम्र, कहना तो चाहिए न कि 'भाई, आओ?' पच्चीस साल का हो तो भी कहना पड़ता है 'भाई, आओ।' लेकिन ऐसा बोलते नहीं हैं। भाई वहाँ सीधे जाते हैं। तो इसके पीछे क्या इस सेठ का रोग है? तो कहते हैं, 'नहीं भाई! तो कहते हैं तेरा ही अनादेय रोग है, यह सेठ टेढ़ा नहीं है। इनका क्यों आदेय किया?' सेठ को स्वार्थी कहो या चाहे कुछ भी कहो लेकिन मूल रोग तो तेरा है, यह अनादेय। अर्थात् इस द्रव्यकर्म में जो है, उसमें अपना कुल-जाति वगैरह सबकुछ आ गया।
हम जहाँ भी जाएँ, वहाँ आदेय। हम किसी भी जगह पर, बचपन में भी आदेय नामकर्म के बिना नहीं रहे हैं क्योंकि पहले से ही निस्पृह !