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[२.७] नामकर्म
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दादाश्री : ऐसे सब लोगों में कुछ स्वार्थ रहा हुआ है, कोई न कोई स्वार्थ रहा हुआ है। मैं तो प्योर, जो है वही फेक्ट बात कहने आया हूँ। मैं तो जो 'है' उसे 'नहीं है' ऐसा नहीं कहता। जो 'नहीं है' उसे 'है,' ऐसा कभी भी मेरे मुँह से नहीं बोलता।
प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, जो संतपुरुष होते हैं और उनके पास ऐसी सिद्धि होती है कि किसी को यों ही कृपा से ठीक कर देते हैं तो वह क्या अहंकार से है?
दादाश्री : नहीं, वह तो ऐसा है न कि संतपुरुषों में हमेशा यश रेखा होती है। वो यश बहुत बड़ा होता है। हर किसी की क्षमता के अनुसार यह यश काम करता रहता है। किसी में अपयश होता है और किसी में यश होता है। वह यश इतना अधिक काम करता है, कि उनके हाथ लगाते ही काम हो जाता है सामनेवाले का। उसे यशनाम कर्म कहते हैं। बाकी तो इंसान कुछ कर सके ऐसा है ही नहीं, ज्ञानियों से कुछ भी नहीं हो सकता न !
प्रश्नकर्ता : नहीं, लेकिन कई संतपुरुष ऐसे होते हैं कि वे खुद की कृपा से दूसरों का रोग मिटा देते हैं।
दादाश्री : वह जो कृपा है, वही यशनाम कर्म है। वह जिसके पास है, उसी के पास है, सब के पास नहीं होती।
प्रश्नकर्ता : जिसे उपलब्ध हुआ हो, उसी के पास होती है।
दादाश्री : हाँ, हमारे पास ऐसा कुछ नहीं है। हमें तो सिर्फ इतना ही है कि सभी प्रकार का यश है ही। इसलिए तू अपनी तरह से लेता रहना नाम, तो तेरा हो जाएगा काम! हमें इसमें कोई लेना-देना नहीं है और यशनाम कर्म पूरा-पूरा है। कुछ भी नहीं किया हो तो भी यश यहाँ आकर खड़ा रहता है। मुझे यश नहीं चाहिए फिर भी यश तो आ जाता है। क्योंकि नामकर्म बहुत उच्च लाया हूँ। आदेय नामकर्म, यश नामकर्म वगैरह सभी प्रकार के नामकर्म उच्च लेकर आया हूँ।
अतः अपने लोग कहते हैं, 'दादा, आप तो बहुत तरह के चमत्कार