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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
घर नहाते-धोते हैं लेकिन उनका ज़रा सा भी, दो आने का भी नुकसान न हो, वह हमारी लक्ष (जागृति) में रहता है। ऐसा कुछ हो तो वहाँ पर रुक जाते हैं हम। चाहे मालिक हाज़िर हो या न हो। हम खुद ही मालिक हों, उस तरह से रहते हैं सब जगह और आपको अगर थोड़ा सा भी दुःख हुआ तो वह मुझे दुःख होने के बराबर है। यह यशनाम कर्म उसी का फल है।
आपको दुःख न हो, ऐसा निरंतर हमारे ध्यान में रहता है। पिछले जन्म में ऐसा सब रहा होगा उसी की वजह से यह सारा यशनाम कर्म है। उसके लिए कोई पुण्य नहीं करना पड़ता। पुण्य के लिए तो मेहनत करनी पड़ती है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन पुण्य के लिए ऐसा कहा गया है न कि सामनेवाले को सुख हो तब पुण्य का बंधन होता है।
दादाश्री : सामनेवाले को सुख हो या न भी हो लेकिन अगर सुख का भाव भी किया हो कि 'मुझे इन्हें सुख देना ही है, ' ऐसा भाव किया, तभी से पुण्य की शुरुआत हो जाती है। फिर उस क्रिया के होने तक पुण्य बंधन होता है।
प्रश्नकर्ता : हाँ, तो यश नामकर्म का भी यही बताया है कि सामनेवाले को दु:ख न हो।
दादाश्री : नहीं, वह नहीं। सामनेवाले को दु:ख हो या न हो, उसके लिए तो थोड़ा बहुत यश तो मिलेगा लेकिन साथ में दूसरे अपयश लाया है न। किसी के यहाँ नहाने जाए और अंदर कुछ किसी चीज़ का अपव्यय हो तब वह कहता है 'हमें क्या? अपना क्या है?' जबकि मेरी दृष्टि में हमें क्या' शब्द है ही नहीं। आप सब तो 'हमें क्या' वाले हैं। हमारी दृष्टि में हमें क्या,' ऐसा नहीं है। एक-दो आने का भी अगर सामनेवाले को नुकसान हो तो मुझसे वह चीज़ देखी नहीं जाती। 'मुझे क्या' ऐसा नहीं रहता। 'सब मेरा ही है, ऐसा रहे, तब लोग यश देते हैं, नहीं तो नहीं देते। वर्ना अपयश तो देते ही हैं। तेरा काम करूँ न, तब भी कहेगा 'जाने दो न! यों ही मेरा बिगाड़ रहे हैं। दादा ऐसे हैं कि बहका दें।' ऐसी तो है यह दुनिया ! लोग