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[२.६] वेदनीय कर्म
चलती है। लोग कहते हैं कि, 'वायु है एक तरह की ।' कुत्ते पूरे दिन यों करते रहते हैं न, जब ऐसा होता है तब । तब फिर शरीर हम सभी के एक जैसे ही हैं न! तो पानी डालने से अच्छा लगता है, मीठा लगता है। तब मैंने सोचा, 'यह गुनाह तो नहीं है? यह मीठा किसे लग रहा है?' पता लगाया । तब पता चला कि अहंकार को मीठा लग रहा था । किसे लग रहा था ?
प्रश्नकर्ता : अहंकार को लग रहा था।
दादाश्री : हाँ, और 'मैं' जान रहा था कि ' अहंकार' को ऐसा लग रहा है। तो यह मीठा क्यों लगा? उसकी शोध की कि इसका रूट कॉज़ कब घुस गया था? इंसान को कई बार जब खूब ठंड लगती है न, तब उसे अंदर कंपकंपी आ जाती है । जिसे कंपकंपी कहते हैं न, उस समय हवा अंदर घुस जाती है। तो वही वायु निकलती है पककर । अतः जब सर्दी में कंपकंपी भोगता है, उस घड़ी वापस अहंकार ही भोगता है और उसके फल स्वरूप यह अहंकार इसमें सुख मानता है । अत: यह गुनाह नहीं है । मेरा क्या कहना है? और फिर आत्मा तो फिर दोनों ही बार जानकार है, वह भोगता ही नहीं है। अज्ञानी भोगता है । 'मुझे यह टेस्ट (रस) आया, मैं ही चंदूभाई हूँ न !' तो फिर वह भोगता है या नहीं भोगता? उससे कर्म बंधन होता है। वह (अज्ञानी) कर्म बाँधता है और यह (ज्ञानी) कर्म छोड़ता है। आपने कभी गरम पानी नहीं डाला है?
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प्रश्नकर्ता : नहाते समय, नहाते हैं बस उतना ही । नहाते समय चित्त न जाने कहाँ घूमता रहता है, इसलिए पता नहीं चलता।
दादाश्री : ओहोहो ! बाहर घूमने चला जाता है ! हमारा तो अभी भी अंदर प्रतिक्षण हाज़िर है। अंदर सारा पृथक्करण होता रहता है और तभी दिया जा सकता है न! खुद के अनुभव की दवाई होनी चाहिए ! मुझे जो माफिक आई उस अनुभव की दवाई आपको माफिक आएगी, नहीं तो आएगी नहीं
न!
भगवान महावीर को भी अशाता वेदनीय
भगवान महावीर को शाता वेदनीय और अशाता वेदनीय होती थी।