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[२.६] वेदनीय कर्म
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दादाश्री : अशाता को दुःख मानते ही नहीं न! शाता को सुख नहीं मानते इसलिए अशाता को दुःख नहीं मानते लेकिन जिसने शाता में सुख माना, उसे अशाता में दुःख नहीं मानना हो तो भी मानना पड़ेगा, अनिवार्य है। लेकिन ज्ञानी तो शाता में सुख लेना छोड़ ही देते हैं।
वेदनीय कर्म अंदर शाता देता है, अशाता भी देता है। अतः कर्म ही ये सब करते हैं। हमें' कुछ भी नहीं करना होता।
वेदन नहीं करना है, जानना है प्रश्नकर्ता : दादा, ऐसा है न कि इन ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय का चिंतवन कर-करके इन्हें जल्दी खपाया जा सकता है जबकि शाता-अशाता वेदनीय और नाम-गोत्र-आयुष्य इन सब को तो भोगना ही पड़ता है।
दादाश्री : ऐसा नहीं है कि भोगना ही पड़ता है। इसमें भी यदि कभी अगर ज्ञान पक्का हो, तो नहीं भोगता। तीर्थंकर नहीं भोगते हैं, कभी भी। उन्हें शाता-अशाता वेदनीय होती हैं, वे भोगते नहीं हैं। वे बस जानते ही हैं, इतना ही।
लेकिन यह ज्ञान कैसा है? 'आप' क्या कहते हो, 'यह तो कुछ भी नहीं है।' क्योंकि आपने इतना ही जाना है लेकिन अगर आप कहो, 'मुझे सहन नहीं हो रहा है' तो दुःख होगा। कितने ही छोटे दु:ख आप जानकर ही निकाल देते हो, उसके भोक्ता बनते ही नहीं। और जितने दुःखों को आप ऐसा कहते हो कि 'मुझ पर यह दुःख आया है, तो अपने आप ही, आपके बोलते ही आ जाता है। आप कहो कि, 'मैंने जाना।' 'जाना' कहते ही हल्का हो जाता है और फिर उसे सिर्फ जानता ही रहता है।
बिलीफ वेदना है, ज्ञान वेदना नहीं प्रश्नकर्ता : अब कहे कि, 'मेरा सिर दुःख रहा है,' उस समय उसे जानता कौन है और सिर की वेदना का वेदन कौन करता है?
दादाश्री : अहंकार उसका वेदन करता है। अहंकार वेदता है ।