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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
में रहते हैं। उसके भोगवटे (सुख या दु:ख का असर, भुगतना) में फर्क होता है। लोगों को ऐसा लगता है कि इन्हें दुःख है। लोग मुझे देखते हैं कि 'दादा को बुखार आया है, लेकिन मैं सिर्फ उदय को जान रहा होता हूँ, भोगवटे को भी मैं जान रहा होता हूँ। अतः शाता-अशाता तो तीर्थंकरों के उदय में भी रहते हैं।
प्रश्नकर्ता : शाता-अशाता को कब तक वेदते हैं?
दादाश्री : केवलज्ञान हो जाए तब तक। केवलज्ञान होने के बाद शाता-अशाता वेदनीय का असर नहीं होता, बिल्कुल भी नहीं। शरीर को शाता-अशाता वेदनीय तो रहती है। सर्दी हो तो देह को ठंड भी लगती है न, लेकिन खुद उसे नहीं वेदते। कितने ही मामलों में तो हम भी नहीं वेदते।
दादा, वेदनीय के उदय के समय इसीलिए हमें डॉक्टर ने कहा था न, यह जो फ्रेक्चर हुआ तब सभी डॉक्टर इकट्ठे हो गए थे। डॉक्टर कह रहे थे, ‘इतना बड़ा फ्रेक्चर हुआ है फिर भी इस व्यक्ति के चेहरे पर यह हास्य क्यों दिख रहा है?' तब दूसरे डॉक्टरों ने (महात्माओं) कहा कि 'ये ज्ञानीपुरुष हैं! ऐसा मत बोलना। ज्ञानीपुरुष हैं इसलिए हास्य दिख रहा है!' नहीं तो इनका चेहरा लटक जाता या फिर रो रहे होते या तो रोनी सूरत दिखती। यह हास्य तो देखो! पचाससौ लोग तो आसपास रहते थे। तब मुझे पूछा, 'यह क्या है? इतना सब आप सहन कैसे कर सकते हैं?' मैंने कहा, 'हमें सहन नहीं करना होता।'
दोनों ही प्रकार की वेदनीय रहती हैं, किसी को भी सिर्फ शाता वेदनीय नहीं रहा है लेकिन हमें वेदनीय वेद के रूप में होता है, जानने के रूप में होता है। फिर भी हमने दुःख नहीं देखा है, एक सेकन्ड भी नहीं। चाहे कभी भी देह छूट जाएगी, ऐसा हो गया हो या भले ही कुछ भी हुआ हो लेकिन हमने अशाता वेदनीय बहुत नहीं देखी है! वेद के रूप में रहे हैं । उसे जानते ज़रूर हैं कि अब ऐसा हो रहा है। हालांकि कुदरती ऐसा है कि अशाता वेदनीय बहुत आती ही नहीं हैं। बहुत हुआ तो दांत की अशाता वेदनीय आ जाती है।