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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
प्रश्नकर्ता : दादा, जब ऐसा निश्चय होता है न कि सत्संग में आना ही है, तब सभी प्रकार से अनुकूलता हो जाती है।
दादाश्री : निश्चय सभी अंतराय के धागे तोड़कर निकाल देता है। निश्चय की ही ज़रूरत है। जब तक निश्चय नहीं करता, तब तक अंतराय वगैरह आते रहते हैं। अभी रोड पर बहुत ट्राफिक हो, लेकिन अगर प्रधानमंत्री आएँ, तो सारा ट्राफिक हट जाता है। यों ही हट जाता है एक घंटे में, कोई खड़ा ही नहीं रहता! ऐसा है यह तो! और यह क्या कोई प्रधानमंत्री का पद है! यह तो परमात्मा का पद है !!! यह ज्ञान देकर आपको मैंने जो पद दिया है, वह परमात्मा का पद है। भले ही आप इसमें तन्मयाकार नहीं रह पाते हों, तो वह अभी आपकी एडजस्ट होने में कमी है। बाकी है तो परमात्मा पद!
'अंतर छूटे त्यां खुले छे अंतर आँखड़ी रे लोल।'
___ 'अंतर छूटे वहाँ खुलते हैं अंतर चक्षु।'
अपने जो अंतर चक्षु खुले हैं न, जो दिव्यचक्षु हैं, यह अंतर छूट जाता है, उसी से दिनोंदिन इस प्रकार दिव्यचक्षु खुलते जाते हैं। अंतर अर्थात् ज्ञानांतराय! जैसे-जैसे बाकी के सभी अंतराय टूटते जाएँगे वैसे-वैसे दिव्यचक्षु खुलते जाएँगे। यह अंतराय पड़ा हुआ है न, वह इन सभी कर्मों की वजह से पड़ा हुआ है न!
ये अंतराय जैसे-जैसे छूटेंगे, वैसे-वैसे सबकुछ खुलता जाएगा। अंतराय की वजह से यह दूर है। नहीं तो आत्मा और आप दूर नहीं हो। सिर्फ अंतराय कर्म ही रुकावट डालते हैं। अब सारी (संपूर्ण) प्राप्ति हो गई है। प्राप्त हो गया है फिर भी क्यों अपनी इच्छा अनुसार लाभ नहीं देता है? तो वह इसलिए कि अंतराय कर्म हैं। जैसे-जैसे वे छूटते जाएँगे, वैसे-वैसे निबेड़ा आता जाएगा।
सत्संग के अंतराय प्रश्नकर्ता : दादा का सत्संग चल रहा हो, फिर भी अंतराय की वजह से आ नहीं पाते, तो वे अंतराय कैसे पड़े?