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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
केले लेने जाना हो तो इच्छा करनी पड़ती है। कोई कार्य करना हो तो निश्चय करना पड़ता है। अनिच्छावाली चीज़ लेने जाते समय कितनी स्पीडिली (तेज़ी से) चलता है कोई इंसान?
प्रश्नकर्ता : बैठ ही जाएगा। दादाश्री : और इच्छावाली चीज़? प्रश्नकर्ता : दौड़ेगा। दादाश्री : और निश्चय इन दोनों से परे होता है।
प्रश्नकर्ता : दादा, इसका मतलब आप जो कहते हैं कि पाँच आज्ञा पालन करने का निश्चय करना चाहिए।
दादाश्री : बस, निश्चय करना चाहिए। तो फिर अपने आप पालन हो पाएगा। आपका निश्चय होना चाहिए और अगर ढीला रखा तो फिर ढीला। आप कहो कि भाई, 'हमें दादा के पास जाना है।' अगर निश्चय किया तो फिर चाहे कितने भी अंतराय होंगे, वे टूट जाएँगे, और अगर ऐसा कहोगे कि 'व्यवस्थित है न' तो फिर बिगड़ जाएगा।
प्रश्नकर्ता : हाँ, ऐसा अनुभव हुआ है।
दादाश्री : इस तरह से 'व्यवस्थित' नहीं कहना चाहिए। व्यवस्थित हो तो फिर बंद आँखों से मोटर चलाओ न सभी! तो सही है। रोड पर बंद आँखों से मोटर चलाने में क्या परेशानी है? व्यवस्थित है न?
प्रश्नकर्ता : तो एक्सिडेन्ट हो जाएगा।
दादाश्री : तो फिर इसमें, यहाँ एक्सिडेन्ट नहीं होगा? व्यवस्थित कब कहना है कि खुली आँखों से गाड़ी चलानी है और फिर भी अगर टकरा जाए, और कोई नुकसान हो जाए तब कहना है, व्यवस्थित। बात को समझना तो पड़ेगा न! यों ही कहीं चलता होगा?
प्रश्नकर्ता : यह तो हर एक चीज़ में आ सकता है कि निश्चय बल हो, तो अंतराय टूट ही जाते हैं।