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[२.५] अंतराय कर्म
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ज्ञानी का निर्अंतराय पद
शास्त्र में ढूँढने जाएँ तो भी नहीं मिलेगा अंतराय का सही अर्थ ! अनुभवियों ने वह सब नहीं लिखा है, मूल आत्मा को अंतराय हैं ही नहीं । जिस-जिस चीज़ की ज़रूरत हो, वे सब वहाँ घर बैठे हाज़िर हो जाती हैं । अंतराय हैं ही नहीं न! और अंतराय अगर हैं तो 'हमने' खड़े किए हैं अपनी अक़्ल से, बुद्धि से। यह बुद्धि का प्रदर्शन है ।
एक व्यक्ति मुझसे पूछ रहा था, 'दादा, आपके संयोग कैसे हैं और हमारे संयोग तो.... आप तो यहाँ से उतरते हैं, तो वहाँ पर कुर्सी तैयार ही रहती है। उसमें किसी भी तरह की अड़चन नहीं आती। 'नो' (नहीं) अंतराय ।' अगर हमारे दिमाग में कभी खाने की इच्छा हो, हालांकि ज्यादातर इच्छा होती नहीं है, लेकिन अगर इच्छा हो तो अंतराय नहीं पड़ते। लोग तो, ऐसी आशा रखकर बैठे होते हैं कि ‘दादा क्या खाएँगे !' फिर अंतराय रहेंगे ही नहीं न! तो वह इसलिए कि ‘मूल आत्मा को अंतराय आते ही नहीं न !' जिस चीज़ की इच्छा हो सबकुछ तुरंत वैसा ही हो जाता है । 'तो फिर अतंराय क्यों हुए?' दर्शनावरण और ज्ञानावरण से हो गए हैं । वे अंतराय मोह से चार भागों में विभाजित हो गए। अतः आत्मा के रूप में 'खुद' परमात्मा है। जिस चीज़ का विचार आए, वे सभी चीज़ें प्राप्त हो जाएँ, ऐसा है । लेकिन अगर प्राप्त नहीं हो रही है तो क्या रुकावटें डाली हैं? मोह की वजह से रुकावटें आ जाती हैं। मूर्च्छा की वजह से ये अंतराय कर्म और विघ्नकर्म हैं।
वैसे-वैसे आत्मवीर्य प्रकट होता है
आत्म शक्तियों को आत्मवीर्य कहते हैं । जिसमें आत्मवीर्य कम हो, उसमें कमज़ोरी उत्पन्न हो जाती हैं। क्रोध - मान-माया-लोभ उत्पन्न हो जाते हैं। अहंकार की वजह से आत्मवीर्य टूट जाता है । जैसे-जैसे वह अहंकार विलय होगा, वैसे-वैसे आत्मवीर्य उत्पन्न होता जाएगा। जब-जब आत्मवीर्य कम होता हुआ लगे, तब पाँच-पच्चीस बार ज़ोर से बोलना कि 'मैं अनंत शक्तिवाला हूँ' तो फिर शक्ति उत्पन्न हो जाएगी। मोक्ष में जाते हुए अनंत अंतराय हैं इसलिए उसके सामने मोक्ष में जाने के लिए अनंत शक्तियाँ हैं ।