________________
[२.५] अंतराय कर्म
१८७
जाओगे। महादेव जी के वहाँ नहीं जाना चाहिए, मिथ्यात्वी हो जाओगे।' अरे भाई, अंतराय डाल रहे हो। दर्शन में अंतराय डाल रहे हो। दर्शन व ज्ञान दोनों में अंतराय, आपको ऐसा नहीं बोलना चाहिए। आपको नहीं जाना हो तो मत जाओ और दूसरों को ऐसा नहीं बोलना चाहिए कि 'जिनालय में गए, इससे अच्छा तो हाथी के नीचे आकर मर जाओ।' ऐसे सारे अंतराय डालते हैं। इसमें जो बात है वह आपको समझ में आई? ये सूक्ष्म बातें समझने जैसी हैं।
मोक्ष जाते हए अंतराय कौन डालता है? मत! मत की वजह से अज्ञान भी समझ में नहीं आता, ज्ञान की बात तो जाने दो।
इन्हें धर्म लाभ प्राप्त नहीं हुआ अर्थात् धर्म का अंतराय है। आपकी लाभ की इच्छा हो, धर्म लाभ की लेकिन प्राप्त ही नहीं होता, तो वह आपका खुला अंतराय है।
प्रश्नकर्ता : वह तो पहले से लाया हुआ अंतराय ही आया है न?
दादाश्री : नहीं, लेकिन पुराना छूटता है और नया बाँधता है। जब तक ज्ञान नहीं हो जाता न, तब तक बाँधता ही रहता है नियम से। गेहूँ उगे हों और गेहूँ के दाने गिरें तो फिर दूसरे उगते ही रहते हैं।
सच्चे ज्ञान के प्रति दुर्लक्ष्य, वह भी डाले अंतराय
प्रश्नकर्ता : ‘किसी का हिसाब नहीं हो तो उससे ज्ञान नहीं लिया जा सकता,' क्या यह बात सही है?
दादाश्री : वह हिसाब नहीं बल्कि अंतराय होता है। हिसाब का प्रश्न नहीं है। लेन-देन तो परिवारवालों में होता है। ये सब तो अंतराय हैं। ज्ञान के सही रास्ते को सही न कहो तो अंतराय पड़ जाता है। ये सारे अंतराय डालने के साधन हैं। या फिर सही ज्ञान के प्रति दुर्लक्ष्य रखना, वह अंतराय है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन वह कैसे जानेगा कि सही है या कैसा है यह? दादाश्री : पता न भी चले।