________________
[२.५] अंतराय कर्म
१९३
प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : बोलते ही ज़रा मुँह फटने लगे, जबान फटने लगे न, मन में इच्छा होती है कि चलो थोड़ी बातचीत करें लेकिन फिर भी नहीं करने देती। हाँ उसी को कहते हैं अंतराय कर्म। अंतराय कर्म के बारे में समझ में आया न बहन? ये अंतराय कर्म बहुत सारे हैं, तरह-तरह के।
करुणाभाव जगत् कल्याण का
प्रश्नकर्ता : यह विज्ञान बुद्धि की सुनता ही नहीं है। क्या इसीलिए यहाँ पर सभी नहीं आते? ऐसा है?
दादाश्री : हमें बहुत सारे लोग क्यों लाने हैं? यह भावना है न, यह एक तरह की करुणा है। वह करुणा अपने में है। उसी की हमें बहुत ज़रूरत है, बस! बाकी कुछ हुआ या नहीं, वह नहीं देखना है हमें। करुणा रखना, यह अपना फर्ज़ है। हुआ या नहीं, वह अपने हाथ में नहीं है। व्यवस्थित के ताबे में है। करुणा रखना आपका फर्ज है और अभी तो यहाँ पर बहुत लोग आएँगे, सभी आएँगे!
अक्रम विज्ञान किसी भी काल में हुआ ही नहीं है। यह तो लाखों लोगों का कल्याण करने को आया है। कितने ही लोग काम निकाल लेंगे
और वह भी सभी का निष्पक्षपाती रूप से। जैन, वैष्णव, स्वामी नारायण सभी।
ज्ञानी से मिलने के भारी अंतराय
सुबह सब्जी लेने जाते हैं, तो किसी को सड़ी हुई, किसी को ताज़ी मिल जाती है न! क्योंकि कि सब्जी के अंतराय नहीं होते। अभी अगर गेहूँ लेने जाए तो अंतरायवाला होता है और हीरे वगैरह लेने जाना हो, तो भी लेने कैसे जाए? हाथ में रूपए आए बिना लेने कैसे जाए? निरे, बेहद अंतराय हैं। ऐसा है न, इस चीज़ (ज्ञान) के अंतराय बहुत होते हैं। यहाँ पर तो दस लोग आएँ तो भी बहुत कहा जाएगा। इसके अंतराय बहुत ज्यादा, अपार होते हैं। यहाँ पर तो, यह तो सर्वोच्च चीज़ है। यहाँ पर सभी का ऐसा पुण्य कैसे हो