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[२.५] अंतराय कर्म
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'रोज़ जब खाती हूँ न, तो चैन से खाने नहीं देते।' 'अरे भाई, किस तरह के हो? ये तो अंतराय कर्म कहलाते हैं। आपको चावल नहीं मिलेंगे। क्यों ऐसा करते हो? चुपचाप बैठो न!' उसे इतनी समझ नहीं है न, वह तो समझता है कि 'ऐसा करेंगे तो अच्छा हो जाएगा।' मान लो कि कभी ऐसा हो भी जाए, दूसरे दिन कुछ कम खाए लेकिन रुकावट तो आपको आएगी न!
प्रश्नकर्ता : लेकिन ऐसा तो पता ही नहीं था। ऐसी तो बहुत रुकावटें डालते हैं हम। आज पहली बार जाना।
दादाश्री : यह सिर्फ आपको ही पता नहीं है ऐसा नहीं है, इन सभी को, किसी को भी पता नहीं है। इन सब शास्त्रों में जो शब्द लिखे हुए हैं इनका सही अर्थ सिर्फ ज्ञानीपुरुष ही जानते हैं, बाकी सब तो सिर्फ बातें करते हैं उतना ही है ! मेरे अंतराय कर्म हैं, मेरे अंतराय कर्म हैं लेकिन वे अंतराय क्या हैं? व्हॉट इज़ इट? आप जानते नहीं हो। ये तो मोटी-मोटी, बड़ी-बड़ी बातें हैं सिर्फ। शास्त्रों में मोटे-मोटे शब्द आते हैं लेकिन अगर आप उनसे पूछो कि 'यह है क्या? मुझे समझा दीजिए, छोटा बच्चा भी समझ जाए उस तरीके से।' तब वे कहते हैं, 'नहीं, वह नहीं आता।' खुद समझेंगे तब समझा सकेंगे न! और मैं तो बच्चे से भी कहता हूँ कि 'अरे, इतना सा देने में क्यों रुकावट डाल रहा है, तुझे नहीं मिलेगा।' यह अंतराय कर्म है! इसी को कहते हैं विघ्नकर्म। यदि विघ्न डाला तो वही विघ्न खुद को आएगा। इसे विघ्नकर्म कहते हैं।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् ऐसे संयोग, उदाहरण के तौर पर डाइबिटीज़ होने के बावजूद भी इतना सारा चावल ले ले तो हमें ज्ञाता-दृष्टा बनकर देखते रहना चाहिए?
दादाश्री : तो और क्या कर सकते हो? नहीं कहोगे तो भी क्या होगा? वह कुछ भी करे, घी की पूरी कटोरी डालकर खाए, तो भी आपको क्या फर्क पड़ेगा? वह तो आपकी हाज़िरी में खाती है इसलिए आपको दुःख होता है न! हाज़िर होते हुए भी गैरहाज़िर मानना अपने आप को। यह मैं नहीं हूँ, मैं नहीं हूँ, ऐसा मानना। हम नहीं होते तो भी ऐसा ही करती न?