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[२.५] अंतराय कर्म
चाहिए।' तो फिर मैं दे ही नहीं पाऊँगा । देना हो फिर भी नहीं दे पाऊँगा । किसी को रोका, वही अंतराय है । किसी को खाते-खाते उठा दिया, 'उठो, तुम दूसरी जाति के लोग यहाँ पर क्यों आए हो !' तो बहुत बड़ा अंतराय, ज़बरदस्त! दूसरी जाति के होते थे न तो पुराने ज़माने में लोग उन्हें उठा देते थे। मैंने देखा है यह सब । इन लोगों ने अंतराय डालने में कुछ बाकी रखा है?! और देखो कैसे दुःखी हुए हैं । दु:खी हुए हैं? अंतराय ! खुद ही रुकावट डालते हैं जान-बूझकर ।
अक़्ल के अहंकार से पड़ें अंतराय
प्रश्नकर्ता : अपने खेत में उगी हुई फसल को कोई जानवर अंदर घुसकर खा रहा हो और हम उसे हाँककर बाहर निकालें तो उसे अंतराय डालना कहा जाएगा?
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दादाश्री : अपने खेत में कोई जानवर घुस जाए तो उसे हाँककर निकालने को अंतराय कर्म नहीं कहते । वह नहीं जा रहा हो तो पैर पर दोचार बार लकड़ी मारकर भी उसे निकाल देना । पेट पर नहीं मारना । पेट पर या सिर पर नहीं मारना । अगर फसल की ज़रूरत है तो, ज़रूरत नहीं हो तो उसे सम्मान से रखना । लेकिन इससे अंतराय कर्म नहीं बंधेंगे। अंतराय कर्म अलग चीज़ है । घबराने की ज़रूरत नहीं है।
अंतराय का मतलब क्या है? तो वह यह है कि ये भाई दान दे रहे थे तब अगर मैं कहूँ कि 'ज़रा देखो तो सही कि सामनेवाला इस दान का अधिकारी है या नहीं। ऐसे ही दे दोगे तो बंधन में पड़ोगे ।' अब उस बेचारे को मिलनेवाला है, वह दुःखी है, उसे कुछ मिल रहा है, यह दे रहा है, उसमें मैं अपनी अक़्ल लगाने जाता हूँ।
प्रश्नकर्ता : अंतराय डालता है।
दादाश्री : नहीं, अगर वह अंतराय डाल रहा होता तो सावधान हो जाता। लेकिन वह अक़्ल लगाता है कि 'देखो मैं कैसा समझा देता हूँ। मैं अक़्लवाला हूँ और वह बेअक़्ल है ।' अर्थात् उसे अक़्ल का अहंकार है।