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[२.५] अंतराय कर्म
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[२.५] अंतराय कर्म
चीजें हैं फिर भी नहीं भोगी जा सकें, वह अंतराय
चौथा है अंतराय कर्म। अंतराय अर्थात् क्या कि कोई चीज़ आपके पास है फिर भी आपको उसका उपयोग करने में परेशानी आती है। हाँ, यानी किये सब चीजें पास में हैं, इसके बावजूद भी हम उसका कोई लाभ नहीं ले सकते। अभी खाना खाने बैठने लगें, थाली रखी हो, खाने की तैयारी हो, थाली में हाथ डालने जा रहे हों, तभी कमिश्नर आ जाते हैं, 'चंदूभाई उठ जाओ, उठ जाओ अभी एक मिनट में, आप जल्दी उठ जाओ।' आप कहते हो कि 'ज़रा खाना खाकर उठू तो?' 'नहीं, नहीं, एक मिनट भी नहीं, खड़े हो जाओ।' इसे अंतराय कर्म कहते हैं। थाली थी, फिर भी खा नहीं पाए। इसी प्रकार अंदर ज्ञान है, दर्शन है, शक्ति है, निर्भयता है, सभी गुण हैं फिर भी उन्हें भोग नहीं पाते क्योंकि अंतराय बाँधे हुए हैं, ऐसी दीवारें बनाई हैं। हमने जान-बूझकर बनाई हैं और अब कहते हैं कि 'मैं फँस गया।' ऐसे हैं अंतराय कर्म।
ऐसे डाले अंतराय प्रश्नकर्ता : अंतराय कर्म क्या हैं? वह मुझे ज़रा ज़्यादा समझना है।
दादाश्री : अंतराय कर्म तो, ऐसा है न कि अगर आप कहो कि मुझे सत्संग में आने की इच्छा नहीं है तो फिर वहाँ पर अंतराय डाले और अगर आप कहो कि मेरी इच्छा है, तो अंतराय छूट जाएँगे। खुद ने ही डाले हुए हैं अंतराय। अंतराय अर्थात् रुकावट।
अंतराय कर्म क्या है? आपका बेटा ब्राह्मणों को भोजन करवा रहा हो, तब