________________
१६०
आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
"कर्म अनंत प्रकार ना, तेमां मुख्ये आठ,
तेमां मुख्ये मोहनीय, हणाय ते कहुं पाठ" 'कर्म अनंत प्रकार के हैं; उनमें से मुख्य हैं आठ उनमें मुख्य मोहनीय; जिससे नष्ट हों, बताऊँ वह पाठ।'
कर्म अनंत प्रकार के होते हैं। उन्हें तरतीब से रखकर विभाजित कर दिया, जिनका इन आठ विभागों में समावेश होता है। उतना करने के बाद भी आखिर में आठ विभाग बने। आठ से कम नहीं हो सकेंगे, ऐसा लगा इसलिए आठ रहने दिए। कम से कम विभाजन कर दिए।
इनमें से इन सब का मुख्य अफसर कौन है? राजा कौन है? तो वह है, मोहनीय। जिसके आधार पर सब खड़ा हो गया है। आठ कर्म उत्पन्न किस आधार पर हए? इसकी जड़ क्या है? तो वह है, मोह। अब यह मोह, वह मूल में से खत्म हो जाए, उसके लिए पाठ बता रहा हूँ तुझे, कहते हैं। जिससे मोहनीय का नाश हो जाए, वह पाठ बताता हूँ। जड़ है इसमें, वह जड़ यदि नष्ट हो जाए तो सबकुछ नष्ट हो जाएगा।
"कर्म मोहनीय भेद बे, दर्शन चारित्र नाम, हणे बोध वीतरागता, अचूक उपाय आम।" "कर्म मोहनीय के भेद दो, दर्शन चारित्र हैं नाम, नष्ट (हरे) करे बोध वीतरागता, अचूक उपाय ऐसा।"
श्रीमद् राजचंद्र मोहनीय कर्म के दो भेद हैं। एक दर्शन मोहनीय और दूसरा चारित्र मोहनीय। क्रमिक मार्ग में दर्शन मोहनीय ज्ञान से जाता है, वह बोध से जाता है और अक्रम में भेद विज्ञान से जाता है। दर्शन मोहनीय गया तो अब बचा क्या? तो वह है चारित्र मोहनीय। चारित्र मोहनीय डिस्चार्ज मोह है, परिणामी मोह। कॉज़ेज़ मोह और परिणामी मोह। कॉज़ेज़ मोह चला गया है। अब भले ही यह मोह आपको अच्छा नहीं लगता फिर भी परिणाम तो आए बगैर रहेगा नहीं। पहले के कॉज़ेज़ का रिएक्शन है अर्थात् यह चारित्र मोह है। अब क्रमिक मार्ग में कॉज़ेज़ मोह को नष्ट करता है बोध जबकि यहाँ पर