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[२.४] मोहनीय कर्म
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उसे नष्ट करता है, भेदविज्ञान। और चारित्र मोह को नष्ट करती है वीतरागता। क्रमिक में अगर किसी के गाली देने पर वह उस पर राग-द्वेष नहीं करे, तो वह खुद का चारित्र मोहनीय नष्ट करता है। अपने यहाँ पर आर्तध्यानरौद्रध्यान बंद हो जाते हैं इसलिए वीतरागता उत्पन्न हो जाती है। पाँच आज्ञा का पालन करता है और समभाव से निकाल कर देता है।
इस ज्ञान के मिलने के बाद मोह तो पूरा ही चला गया है आपका। मोह नाम मात्र को भी नहीं रहा। सिर्फ कितना रहा है? वर्तन मोह । व्यवहार में यों कसी को ऐसा दिखता है कि 'इसे कितना मोह है!' वर्तन आपका पूरा ही मोहवाला होता है। वर्तन मोह कहते हैं उसे। ऐसा वर्तन मोह तो मुझे भी है। मैं यह सब खाने नहीं बैठता? अगर भाए तो कढ़ी ज्यादा नहीं लेता? ऐसा जो वर्तन मोह है, वह वास्तविक मोह नहीं है। यह निकाली मोह है। जाता हुआ मोह, वह अपने घर जा रहा है। हमें कहकर जाता है कि 'अब मैं जा रहा हूँ।' और वास्तविक मोह तो वह है कि जिससे बीज डलते हैं। इसी से पूरा जगत् चल रहा है। यह मोह एक घंटे में ही खत्म हो जाता है सारा। सर्वांश नष्ट हो जाता है मोह। मोह का नाश हो जाएगा, तभी यह सब जाएगा न? वह मोह भी द्रव्यकर्म है। हमने सबकुछ खत्म कर दिया, एकदम से।
पूरे जैनधर्म का, तमाम धर्मों का तत्व दे दिया है सारा और वह भी क्रियाकारी, अपने आप ही काम करता रहता है और अपने आप ही मोक्ष में ले जाता है। जब तक मोक्ष में नहीं ले जाए, तब तक छोड़ता नहीं है। ऐसा है यह तो।
भेद, दर्शनावरण और दर्शन मोहनीय के बीच
आत्मा प्राप्त होने से मोहनीय कर्म खत्म हो गया। मोहनीय कब तक है? 'मैं चंदूभाई हूँ' तभी तक। उसके बाद फिर 'मैं शुद्धात्मा हूँ' हो गया तो फिर मोहनीय नहीं है। शुद्धात्मा भी लक्ष (जागृति) के रूप में रहना चाहिए। इसे सिर्फ बोलते रहने से कुछ नहीं बदलेगा। मोहनीय पूरा चला गया है, मोहनीय ही अंतराय का कारण है क्योंकि मोहनीय का फल है अंतराय लेकिन भगवान ने दोनों को अलग बताया हैं। मोहनीय और अंतराय