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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
ज्ञानावरण और दर्शनावरण दो ही हैं। इसका मूल कारण मोह है। 'मैं चंदूभाई हूँ' यही मोह है।
प्रश्नकर्ता : ऐसे तीन शब्द हैं - मोह, महामोह और व्यामोह।
दादाश्री : व्यामोह अर्थात् विशेष मोह यानी कि मूर्छित हो जाता है। फिर उसे भान नहीं रहता। व्यामोह में भान नहीं रहता, मोह में भान रहता
है।
प्रश्नकर्ता : और तीसरा है महामोह। दादाश्री : महामोह में भी भान रहता है उसे।
जो मूर्छित करे, वह मोह लेकिन मोहनीय कर्म का मतलब क्या है कि मोह करने जैसी चीज़ नहीं है फिर भी हमें उसके प्रति आकर्षण होता है। चश्मों के खराब होने की वजह से। द्रव्यकर्म चश्मे जैसे हैं। जिसके जैसे चश्मे हैं, वैसा ही उसका स्वरूप।
अब ज्ञानावरण और दर्शनावरण, ये दोनों द्रव्यकर्म हैं। इन दोनों की वजह से मोहनीय उत्पन्न हुआ है, दिखना बंद हो गया है, अनुभव होना बंद हो गया है अर्थात् यही मोह है। उसी में कुछ अच्छा दिखा तो वहीं पर चिपक पड़ता है। जैसे कि कीट-पतंगे हैं न, वे लाइट पर चिपक जाते हैं, उसी प्रकार यह भी हर किसी जगह पर चिपक पड़ता है। यह मोहनीय कर्म तीसरे प्रकार का द्रव्यकर्म है। वह कोई चीज़ देखते ही क्यों उसके प्रति एकदम से आकर्षित हो जाता है? वह इसलिए क्योंकि मोहनीय कर्म है।
बाज़ार में जाए तो पटाखे लिए बगैर नहीं रहता। नहीं गया होता तो कुछ भी नहीं लेता। नहीं देखता तो कुछ भी नहीं था। देखते ही मोह उत्पन्न हो जाए, वह मोहनीय कर्म है। मूर्छित हो जाता है, खुद अपने आप को भूल जाता है। 'मेरे पास क्या सुविधा है या फिर यह उधार हो गया है या नहीं,' वह भी भूल जाता है। ऐसे जो मूर्छित हो जाता है, वह द्रव्यकर्म की वजह से है। द्रव्यकर्म खत्म हो जाएँ, तो मूर्छा नहीं होगी।