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[२.४] मोहनीय कर्म
पोतापणां मानना, वही मोहनीय कर्म कितने गुण बताए इस मोमबत्ती के? प्रश्नकर्ता : दो गुण बताए।
दादाश्री : और द्रव्यकर्म किसे कहते हैं कि इस मोह से जो दिखता है, जो द्रव्यकर्म हैं, वे चश्मे हैं। मोहरूपी चश्मे । 'यह मेरी वाइफ आई' कहेगा और हम इनके पति हैं।' ओहोहो! बड़े आए पति बनकर!
मोहनीय अर्थात् जहाँ पर खुद नहीं है वहाँ पर पोतापणां मानना और उसके जो भी रिलेशन हैं, उन्हें खुद के मानना। यह जो अपना है ही नहीं उसे तो खुद का मानते ही हैं लेकिन इसके जो बच्चे हैं, उन्हें 'मेरे बच्चे हैं' और इसके जमाई 'मेरे ही जमाई हैं।' अरे, कब तक इन जमाईयों को सिर पर बिठाएगा? इसीलिए ही हैं भव के बीज, घनघाती कर्म, मोहनीय!
__ मोहनीय कर्म से भूला खुद को मोहनीय अर्थात् क्या है कि मान लो एक नगीनदास पूरे गाँव में सेठ की तरह पहचाने जाते हैं। वे रात को सोते समय, खाने से पहले इतनी शराब पीते हों और खाकर सो जाते हों, नियमपूर्वक लेते हों तो उसका भी आवरण तो आता ही है, लेकिन उस आवरण का पता नहीं चलता। अब एक दिन मित्र आए, तब वे दो-तीन पेग ज़्यादा पी ले तो फिर क्या वे नगीनदास रहेंगे? ऐसा अक्लमंद इंसान तब उनके वहाँ जाएँ तो कहने लगता है, 'मैं हिंदुस्तान का प्रेसिडेन्ट हूँ।' तो हम नहीं समझ जाएँगे कि यह किस चीज़ का असर है इन पर?