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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
ये तो निरी गुत्थियाँ हैं। जहाँ विरोधाभास है न, वहाँ पर बहुत उलझनें हैं। जगत् को वे प्रिय लगती हैं! उलझनवाला होता है तो फिर मज़ा आता है।
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प्रश्नकर्ता : इसका कारण यह है कि एकदम से यदि प्रकाश मिल जाए तो बाकी के जीवन का क्या करेंगे?
दादाश्री : बाकी का जीवन बहुत सुंदर बीतता है ।
प्रश्नकर्ता : लेकिन प्रकाश मिल जाने के बाद बाकी का जीवन रहेगा ही नहीं न?
दादाश्री : फिर पुरुष बनता है और पुरुष बना इसलिए फिर खुद 'पुरुष' में से दिनों-दिन 'पुरुषोत्तम' बनता जाता है । उलझनों में से मुक्ति हुई उसके बाद फिर उलझन खड़ी ही नहीं होगी न !
शुद्धात्मा बन गए और ज्ञाता - दृष्टा बन गए, वे पुरुष बन गए, जो प्रकृति को निहारे वे पुरुषोत्तम । जो निरंतर प्रकृति को निहारता रहे, वह पुरुषोत्तम कहलाता है।
प्रश्नकर्ता : अभी आपकी जो स्थिति है, क्या उस स्थिति को पुरुषोत्तम कहा जा सकता है?
दादाश्री : नहीं। हमारी स्थिति उससे थोड़ी कच्ची है। हमारी यदि वह स्थिति होती तो हम खुद ही दादा भगवान बन जाते। अर्थात् हमारी ज़रा चार डिग्री कम है। इसलिए हम ऐसा नहीं कह सकते कि 'उस रूप है।' इसी वजह से हम भेद विज्ञानी, ज्ञानीपुरुष कहलाते हैं । जो है वैसा ही बताना चाहिए, नहीं तो खुद को ही दोष लगेगा। जैसा है उसी के लिए हमें 'हाँ' कहना पड़ता है और जो नहीं है उसके लिए 'ना' कहना पड़ता है। भले ही किसी को बुरा लगे तो हर्ज नहीं, लेकिन जैसा है वैसा ही कह सकते हैं। हम और कुछ नहीं कह सकते । ईश्वर है या नहीं, ईश्वर ने यह बनाया होगा या नहीं, तो हमें जैसा है वैसा कहना पड़ता है।
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फिर पुरुष बनने के बाद उसका पुरुषार्थ शुरू हो जाता है। फिर उस