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[१.१०] प्रकृति को निहार चुका, वही परमात्मा
प्रश्नकर्ता: दूसरों के दोष की बात नहीं कर रहे हैं, खुद के ही दोषों की बात कर रहे हैं
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दादाश्री : दोष देखता है, इसीलिए उस समय वह प्रकृति ही है लेकिन वह उच्च स्तरीय प्रकृति है । आत्मा को प्राप्त करवानेवाली ।
प्रश्नकर्ता : और जो प्रकृति को निर्दोष देखता है, वह कौन है?
दादाश्री : जो प्रकृति को निर्दोष देखता है, वही परमात्मा है। वही शुद्धात्मा है। वह किसी और चीज़ में हाथ ही नहीं डालता न !
प्रश्नकर्ता: निर्दोष देखने में उसे कैसा आनंद मिलता है? दादाश्री : वह आनंद, वह मुक्तानंद कहलाता है ! प्रश्नकर्ता : मतलब, परिणाम के बारे में कुछ बोलता ही नहीं ? दादाश्री : परिणाम को, प्रकृति के परिणामों को देखता ही नहीं है। दो प्रकार के परिणामिक ज्ञान हैं। एक जो है वह प्रकृति का परिणामिक ज्ञान है और एक आत्मा का परिणामिक ज्ञान है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन वह जैसा है वैसा देखने में कौन सा स्वाद चख रहा है?
दादाश्री : वह आनंद तो उसने चख लिया है न! लेकिन वह क्या कहता है, ‘मुझे आनंद की कुछ भी नहीं पड़ी है । मुझे तो यह जैसा है वैसा देखने की पड़ी है।' इसलिए हम क्या कहते हैं कि 'जैसा है वैसा' देखो न! वह सब से अंतिम बात है !
अब प्रकृति का जो परिणामिक ज्ञान है उसे आप निर्दोष देखो, तो आप पास हो गए और दोषित देखा तो उलझन खड़ी की !
प्रश्नकर्ता : कौन से ज्ञान प्रकाश की वजह से आत्मा का भाग उसे दोषित नहीं देखता है?
दादाश्री : वह केवलज्ञान के अंशों की वजह से दोषित नहीं देखता।