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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
प्रश्नकर्ता : उन्हें दोषित देखने में कुछ ऐसा आनंद देखा होगा कि जो राग-द्वेष में परिणमित होता होगा, नाशवंत होगा इसलिए दोषित नहीं देखता?
दादाश्री : निर्दोष देखने में आनंद आता है। लेकिन वह इस हेतु से नहीं देखता कि आनंद आए, लेकिन वह तो यों ही, है ही ऐसा ! जैसा है वैसा' देखता है, 'जैसा है वैसा' देखता है और वे....(प्रकृति) जो हैं वे, 'जैसा है वैसा' नहीं देखते इसी वजह से दुःख होता है!
ज्ञानी एक को देखते हैं और एक को निहारते हैं?
हम से अगर कोई कहे कि 'आपकी पीठ पीछे ऐसा बोल रहे थे,' तो मैं कहूँगा, 'बोलने दो भाई। यह मेरा उदय स्वरूप है न, और उसका भी उदय स्वरूप है बेचारे का और उस उदय स्वरूप को हम निहारते हैं।'
__हम पूरे जगत् को, जीवमात्र को शुद्ध स्वरूप से ही देखते हैं। जैसे आप देखते हो वैसे ही हम भी देखते हैं और प्रकृति को उदय के रूप में निहारते हैं। एक को देखते हैं और एक को निहारते हैं और दोषित तो कोई है ही नहीं, निर्दोष है जगत्। लोगों को दोषित दिखता होगा? पत्नी दोषित दिखती है? सभी दोषित ही दिखते है न!
प्रश्नकर्ता : आपने कहा न कि एक को हम देखते हैं और एक को निहारते हैं, तो वह समझ में नहीं आया। निहारने में और देखने में क्या फर्क
है?
दादाश्री : आत्मा से देखते हैं, हम दृश्य को दृष्टा की तरह देखते हैं, आत्मा से आत्मा को देखते हैं और इस देह दृष्टि से उदय स्वरूप को निहारते हैं कि वह किसी को गाली दे रहा है तो वह उसका उदय स्वरूप है, इसमें आज उसका दोष नहीं हैं। उसका दोष तो, अंदर वह जो भाव कर रहा है, वही उसका दोष है लेकिन अपने महात्मा तो भाव भी नहीं करते। कर्तापन छूट गया, इसलिए। मैं शुद्धात्मा हूँ' इसलिए कर्तापन छूट गया है। वास्तव में आप शुद्धात्मा हो या वास्तव में चंदूभाई हो?