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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
विभाजित हो जाता है। वे सभी द्रव्यकर्म कहलाते हैं । अर्थात् इस जन्म में द्रव्यकर्म में उल्टे चश्मे और देह, दो चीजें मिलती हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय, ये चारों पट्टियों के रूप में हैं और नाम, गोत्र, आयुष्य और वेदनीय जो हैं वे बॉडी (शरीर) के रूप में हैं, ये आठ प्रकार के द्रव्यकर्म हैं। जब से 'इसका' जन्म हुआ तभी से ये आठों आठ कर्म हैं ही।
प्रश्नकर्ता : तो फिर यह द्रव्यकर्म आया कहाँ से?
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दादाश्री : वह पहले के कर्मों का हिसाब है, सार है । गत जन्म का सार अर्थात् पूँजी लेकर आया है । उसी में द्रव्यकर्म आ गए। अब द्रव्यकर्म तो मुफ्त में मिले हुए हैं। पुरुषार्थ नहीं करना पड़ा।
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ये हर एक कर्म निरंतर एक-एक समय में बंध रहे हैं, उन्हें आठ भागों में विभक्त किया लेकिन जब कर्म बंधन होता है, उसमें तो आठों कर्म होते हैं। उनका फिर विभाजन होता है। कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिनसे देह बन जाता है। कुछ कर्मों की वजह से उसे कड़वा - मीठा स्वाद आता है। कुछ कर्मों की वजह से वह लोकपूज्य या लोकनिंद्य माना जाता है, ऐसा सब है। और कुछ कर्म उसके जन्म-मरण ..... कोई जल्दी मर जाता है, कोई देर से मरता है। चार कर्म ये हैं और चार कर्म ऐसे हैं जो आँखों पर पट्टियाँ बाँध देते हैं। ज्ञान आवृत हो गया इसलिए ज्ञानावरणीय है, दर्शन आवृत हो गया, सूझ नहीं पड़ती इसलिए दर्शनावरण। उससे उल्टा ही दिखता है । जैसे 'आपके' चश्मे होते हैं वैसा ही दिखेगा न? ! उसे द्रव्यकर्म कहते हैं । फिर आगे जाकर मूल वस्तु पर आवरण आ जाते हैं, इस वजह से सभी कई प्रकार से उल्टे चलते रहते हैं ।
अब द्रव्यकर्म के बारे में बताता हूँ । जैसे किसी व्यक्ति को आगे की सूझ नहीं पड़ रही हो तो अंधे की तरह टकराता रहता है, तो वह दर्शनावरण कर्म है। ठीक से जान नहीं पाता है, वह ज्ञानावरण कर्म है । फिर, यह मोह भी द्रव्यकर्म है। फिर विघ्नकर्म, अंतराय कर्म, वह द्रव्यकर्म है। यह जो बॉडी है न, वह द्रव्यकर्म का भाग है । यह बॉडी है तभी नाम और रूप हैं