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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
दादाश्री : यही, जागृति ही! इन दोनों को अलग-अलग पहचान ही गए कि भाई, यह अक्रिय है और यह सक्रिय है तो दोनों को अलग रखना है।
प्रश्नकर्ता : जो प्रकृति लेकर आए हैं, वह तो दुःखदाई ही है। अब वीतराग से ज्ञान मिला है। अब प्रकृति, प्रकृति का काम करेगी और जो सुख-दु:ख का अनुभव होता है, वह कम हो जाएगा, हल्का हो जाएगा कभी?
दादाश्री : वह सब हल्का नहीं, पर छूएगा ही नहीं बाद में। जब पराया है ऐसा जान लोगे तब पूरा-पूरा अनुभव होगा। अभी तक तो ऐसा अनुभव नहीं होता न कि पराया है।
__ आत्मा के जुदा होने के बाद सिर्फ पुरुषार्थ बाकी रहा। जब तक देहाध्यास था, तब तक पुरुषार्थ नहीं खुला था। पुरुषार्थ तो, पुरुष और प्रकृति दोनों के अलग हो जाने के बाद पुरुषार्थ की शुरुआत होती है। पुरुषार्थ करते-करते वह पुरुषोत्तम बनता है! पुरुष में से पुरुषोत्तम बनता है। पुरुषोत्तम योग उत्पन्न होता है। इस पुरुषार्थ से क्या करना है? 'मेरा नहीं' 'मुझे कुछ स्पर्श नहीं करता,''यह हमारा नहीं है,''मेरा नहीं है' ऐसा कहने से चिपकेगा नहीं क्योंकि यह नियम है कि यह तेरा है या पराया? ऐसी उलझन खड़ी हो न तब कह देना कि 'मेरा नहीं है'। तो अपने आप भाग जाएगा। खडा ही नहीं रहेगा। कहने को नहीं रहेगा कि 'मैं आपका था।' 'यह मेरा नहीं है' कहा कि गया। दक्षिणी (मराठी) लोग 'आमचा नहीं' ऐसा कहते हैं लेकिन उसका अर्थ यही है न! 'आमचा नाही,' से पहले तो 'तुमचा ही था न?' अब 'आमचा नाहीं।'
भेद विज्ञान से पुरुष और प्रकृति दोनों जुदा हो जाते हैं। उसके बाद पुरुष होने के बाद फिर वह इन आज्ञाओं का पालन करे तो पुरुषोत्तम बनकर रहेगा। यह अंतिम दशा है पुरुषोतम। पुराण पुरुष पुरुषोत्तम भगवान कहलाते हैं। जिनमें पोतापणां भी नहीं होता। इस देह से पोतापणां नहीं रहता कि 'मैं कह रहा हूँ। मेरी बात क्यों नहीं सुनते!'