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[१.९] पुरुष में से पुरुषोतम
महावीर भगवान सिर्फ खुद की ही पुद्गल प्रकृति को देखते रहते थे। उसी के ज्ञाता-दृष्टा रहते थे। ऐसे करते-करते केवलज्ञान उपजा । ज्ञानी बैठे हैं सत् के संग
प्रश्नकर्ता : 'ज्ञानी भी प्रकृति में ही हैं' यह समझाइए ।
दादाश्री : हाँ, हम भी प्रकृति में हैं। खाते हैं, पीते हैं, सो जाते हैं, बातें करते हैं।
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प्रश्नकर्ता : 'लेकिन जो प्रकृति में रहकर खुद अलग रहें, वे ज्ञानी !' दादाश्री : हाँ, हम इस शरीर से बाहर रहते हैं बिल्कुल । पड़ोसी की तरह रहते हैं।
अंदर जो बैठे हैं न, उस सत के साथ मैं बैठा हूँ और मेरे साथ ये सब बैठे हैं, इसलिए सत के नज़दीक ही हैं न ये सभी ! इसलिए फिर मैं क्या कहता हूँ कि न्यूज़ पेपर पढ़ोगे तो भी हर्ज नहीं है, आप यहाँ आकर लड्डू खाओगे तो भी हर्ज नहीं है लेकिन अगर बाहर जाकर पुस्तकें और शास्त्र पढ़ोगे तो परेशानी होगी । चाहे कुछ भी करोगे तो भी परेशानी होगी। यहाँ पर कुछ भी करोगे तो भी हर्ज नहीं है, क्योंकि सत् के पास हो न ! सत् अन्य कहीं पर हो नहीं सकता । सत् अर्थात् प्रकृति से बिल्कुल अलग ! निराला !!
शुरू हुआ पुरुषोत्तम योग
प्रश्नकर्ता : पुरुष और प्रकृति को अलग रखने का उपाय क्या है?
दादाश्री : पुरुष और प्रकृति दोनों अलग चीजें हैं। पुरुष शुद्धात्मा है और प्रकृति पुद्गल है । प्रकृति पूरण - गलन स्वभाव की है, पुरुष ज्ञान स्वभाव का है। पुरुष अकर्ता है और प्रकृति कर्ता है, अर्थात् जहाँ पर कर्ता क्रियामान है। जो होता रहता है, वह प्रकृति है और जो अक्रिय रहे, वह है पुरुष। इस तरह अलग रखना है।
प्रश्नकर्ता : उसके लिए कोई साधन ?