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साक्षी भाव और दृष्टा भाव में क्या फर्क है? साक्षी अहंकार है और दृष्टा आत्मा है। अहंकार खत्म हो जाने के बाद, दृष्टा । तब तक साक्षी ही रहता है। जितना मोह कम होता जाता है उतना ही अधिक साक्षी रहा जा सकता है। मोह का नशा साक्षी किस तरह से रहने देगा? और ज्ञाता -दृष्टा तो निरंतर रहता है। वह आत्मा की जागृति है और साक्षी भाव से रहना, वह एक प्रकार की अहंकार की जागृति है ।
'मैं चंदूभाई हूँ', जब तक ऐसी रोंग बिलीफ है तब तक 'मैं ज्ञाता हूँ' और 'मैं ही कर्ता हूँ' ऐसा रहता है। जब ज्ञानी -कृपा से निज स्वरूप का भान हो जाता है, तब मैं चंदूभाई नहीं लेकिन 'मैं शुद्धात्मा हूँ', ऐसा ज्ञान हो जाता है, भान हो जाता है और जो चंदूभाई पहले ज्ञाता थे, वे अब ज्ञेय बन जाते हैं और मूल ज्ञाता जो कि शुद्धात्मा हैं, वे सिंहासन पर आ जाते हैं।
दो तरह के ज्ञेय हैं, एक अवस्था स्वरूप से है और दूसरा ज्ञेय तत्व स्वरूप से है। जो ज्ञेय अवस्था स्वरूप से हैं, वे सभी विनाशी होते हैं और जो ज्ञेय तत्व स्वरूप से होते हैं, वे अविनाशी होते हैं ।
ज्ञाता भाव जब ज्ञेय-भाव से दिखाई देता है, तब स्व स्वभाव में आता है। ज्ञेय में जो ममत्वपना था वह अब छूट गया, अब पुद्गल को देखता रहे तो आत्म पुष्टि होगी और उससे पुद्गल शुद्ध होगा । वे पुद्गल फिर वापस नहीं आएँगे।
जब आत्मा तत्वरूप से दिखाई देगा, तब सभी तत्व दिखाई देंगे। वास्तविक ज्ञेय तत्व स्वरूप से है और केवलज्ञान के माध्यम से ही ज्ञेय तत्व स्वरूप से दिखाई देते हैं ।
ज्ञातापद हमेशा नहीं रहे तो वह अंश ज्ञानीपद है और हमेशा ज्ञातापद रहे तो सर्वांश हो जाता है । अंश में से सर्वांश ज्ञानी अपने आप ही हो जाता
है।
महात्माओं का डिस्चार्ज कैसा होता है? खुद डिस्चार्ज बैटरियों को ‘देखता है', इसलिए वे संकुचित होती जाती हैं। एक रतल के डिस्चार्ज का
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