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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
अर्थात् इफेक्टिव में, लेकिन कॉज़ेज़ में परतंत्र है। संपूर्ण परतंत्र नहीं है लेकिन वोटिंग पद्धति, पार्लियामेन्टरी पद्धति है। आत्मा को इसमें कोई लेना-देना नहीं है।
प्रश्नकर्ता : प्रकृति यदि पूरी तरह स्वतंत्र नहीं है तो किस पर आधारित है?
दादाश्री : नहीं, परिणाम से स्वतंत्र है। इस जन्म से लेकर मृत्यु तक यह परिणाम कहलाता है, वह स्वतंत्र है। इसमें प्रकृति स्वतंत्र है, अपना कुछ भी नहीं चलता लेकिन अंदर जो कॉज़ेज़ बन रहे हैं, वहाँ पर अपना चलता है। उसमें हमें बदलाव करना हो तो हो सकता है थोड़ा बहुत। वह भी संपूर्ण तो हो ही नहीं सकता। थोड़ा-बहुत बदलाव हम कर सकते हैं कि भाई, किसी पर हमें ऐसे कुदरती रूप से बैर होने लगे, फिर भी अंदर हम नक्की करते हैं कि 'भाई हमें बैर बाँधकर क्या फायदा पाना है!' अर्थात् अंदर उतना बदलाव करने का राइट है, कॉज़ेज़ में। इफेक्ट में राइट नहीं है, इफेक्ट तो एक्जेक्ट आएगा ही।
जब लड़की देखने जाता है, तब प्रकृति उसे पसंद करती है और खुद कहता है कि 'मैंने पसंद की।' और फिर घर आने पर क्या कहता है कि 'मैं तो तुझे ऐसा समझता ही नहीं था, तू तो खराब निकली।' अरे भाई, वह खराब नहीं निकली है, तू टेढ़ा है। इन सभी को किस तरह ये सब पज़ल्स समझ में आएँ? इसलिए इंसान उलझता ही जाता है, पूरे दिन उलझन, उलझन और उलझन।
प्रकृति को नहीं बदलना है, उसके कारणों को बदलना है
प्रश्नकर्ता : लेकिन गीता में कहा है कि प्रकृति का जो मूलभूत स्वभाव है, वह तो माया की तरफ जाने का ही है और अब उसके विरूद्ध जाना अर्थात् आत्मा की तरफ जाना, वह कैसे हो सकता है? जिस प्रकार पानी का स्वभाव नीचे जाने का है, अग्नि का स्वभाव ऊपर जाने का है तो उन्हें उनके स्वभाव से विरुद्ध ले जाना मुश्किल है, तो उसी प्रकार से प्रकृति को आत्मा की तरफ ले जाना कितना मुश्किल है?