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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
दादाश्री : प्रतिक्रमण करनेवाला करता है न! अर्थात् जो भी दोष हो गया हो उसके लिए माफी माँगता है। अतः प्रतिक्रमण करनेवाली प्रकृति है और माफ करनेवाले भगवान हैं। यानी कि माफी माँगनेवाले अलग हैं
और माफी देनेवाले अलग हैं। इन दोनों के बीच और कोई संबंध नहीं है जबकि बचाने में तो बहुत बड़ा संबंध है! बड़ा ज़बरदस्त संबंध हो, तब बचाव होता है।
प्रश्नकर्ता : हाँ, राग के बिना नहीं बचाता।
दादाश्री : उसे राग कहो या कुछ भी कहो लेकिन सब से बड़ा संबंध तो अगर वह 'पर' का मालिक है तो बचाव करेगा ही। बचाने के लिए और कोई शब्द रहा ही नहीं न!
प्रश्नकर्ता : तो प्रकृति का पोषण नहीं करना है, रक्षण नहीं करना है?
दादाश्री : हाँ, रक्षण नहीं करना है अर्थात् क्या कि आत्मा हुए हैं और फिर प्रकृति का रक्षण करें तो गलत कहलाएगा न? ज़्यादा रक्षण करें तो फिर उसी पक्ष के हो गए न। इस प्रकृति का बचाव करके, और रक्षण करके ही यह मुश्किल खड़ी हुई है और प्रतिक्रमण से धुल जाती है।
प्रश्नकर्ता : आपने हमें जो दृष्टि दी है, वह धोने की दृष्टि दी है, फिर भी प्रकृति का रक्षण क्यों कर देते हैं?
दादाश्री : वह तो इसीलिए कि अभी तक प्रकृति के पक्ष में हो। हम तो प्रकृति का रक्षण नहीं करते। प्रकृति का तो जहाँ से दोष दिखा कि तुरंत कब माफ हो जाए, उसी की तैयारी रहती है। अभी भी रक्षण कर देते हैं, वह तो भयंकर गुनाह है। उसे छुपाएँ तो भी रक्षण है, वह भी गुनाह है।
आप कहो कि हाँ दादा, यह गलत है।' तो मुझे कह देना चाहिए कि 'भाई, गलत है।' मैं बचाव करने के लिए अन्य शब्द का उपयोग करूँ, वकालत करूँ तो गुनाह है।
प्रश्नकर्ता : इस तरह से छुपाना, वह कमज़ोरी है। दादाश्री : वह गुनाह ही कहलाता है।