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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
प्रकृति के सामने यथार्थ ज्ञाता-दृष्टापन प्रश्नकर्ता : अब दादा, वह जो आपने कहा है कि अब आप अपने आप शुद्धात्मा का काम करते रहो, तो इसका मतलब क्या ज्ञाता-दृष्टा और परमानंदी रहना, ऐसा है?
दादाश्री : बस, और कुछ भी नहीं। ज्ञाता-दृष्टा और परमानंदी! और 'चंदूभाई की प्रकृति क्या कर रही है,' वह देखते रहो। इनकी गाड़ी आए तब चंदूभाई कहेंगे, 'यह टकरा जाएगी, ऐसा होगा, वैसा होगा।' तब आपको वह देखते रहना है कि 'अरे वाह!' ये पुद्गल पर्याय हैं सारे, इन्हीं को देखना हैं। खुद की प्रकृति को देखते रहना है।
इस प्रकृति को 'देखा' तो अपने आप ही फल देकर चली जाएगी यानी कि 'मैं फिर से नहीं आऊँगी, आप मुक्त और मैं भी मुक्त' ऐसा कहकर चली जाएगी। फिर अगर आपको कोई आपत्ति है तो बुलवा लेना!
एक बार रास्ते पर जा रहे थे, तो एक बस जल रही थी। वह मैंने देखी। मैंने कहा, 'यह बस जल रही है।' भड़,भड़,भड़, भड़ अरे....बहुत बड़ी होली की तरह जल रही थी। तब मैंने जाना, 'यह बस जल रही है।' तब फिर मैं यह दृष्टि लाता हूँ न कि यह प्रकृति कहाँ तक चली कि 'अरे अरे, इन लड़कों ने क्या लगा रखा है? ये आरक्षण विरोधी ! इन लोगों को खुद की खबर नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं ! इस तरह यह प्रकृति अंदर जो चलने लगी, उसे मैं देख ही रहा था कि प्रकृति कैसे चल रही है!
प्रकृति तो बोले बगैर रहेगी नहीं न! 'ये बस जला रहे हैं और ऐसा हो रहा है' तो इसमें अपने बाप का क्या चला गया? प्रकृति, जैसे अपना ही हो ऐसे अक्लमंदी किए बगैर रहती नहीं। प्रकृति ऐसी सब अक्लमंदी करती ही रहती है। उसे हम देखते रहते हैं, बस! और क्या! हम समझ गए कि 'ओहोहो! प्रकृति क्या कर रही है?' 'लड़कों को ऐसा नहीं करना चाहिए। लड़कों को इसकी समझ नहीं हैं, इसलिए ऐसा कर रहे हैं। लड़कों को पता नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं!' लेकिन फिर इन सब को भी हम