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[१.८] प्रकृति के ज्ञाता-दृष्टा
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जानते हैं। मैं इसे जान ही रहा होता हूँ और दूसरी तरफ प्रकृति तो अपनी बातें करती जाती है।
और इसमें प्रकृति में अंदर कोई सिरफिरा हो तो पूछेगा कि आप कौन हो?' तब फिर हम कहते हैं कि 'हम केवलज्ञान स्वरूप हैं। तुझे जो करना हो वह कर। उस पर जितने दावे करने हों वे कर!'
आप ज्ञाता-दृष्टा कहलाते हैं। खुद की प्रकृति को देखना, वह जो है वही ज्ञाता-दृष्टापन है। फिर प्रकृति के साथ बात-चीत करना। चंदूभाई के नाम से ही व्यवहार रखना है हमें। 'उदयकर्म है, ऐसा कहना ही नहीं पड़े। 'चंदूभाई, कैसे हो? आपकी तबियत अच्छी है या नहीं?' सुबह उठकर पूछना ऐसा सब । क्योंकि अपने पड़ोसी हैं न! हर्ज क्या है? और फिर जैन के पड़ोसी जैन होते हैं और ब्राह्मण के ब्राह्मण होते हैं। फिर क्या परेशानी? इसलिए उन्हें 'कैसे हो, कैसे नहीं! आज ज़रा डेढ़ कप चाय पी लो' ऐसा कहना। ऐसा करके आप काम तो लेना! देखना कितना सुंदर करती है प्रकृति। प्रकृति के साथ एडजस्ट होना आना चाहिए। प्रकृति तो सुंदर स्वभाव की है। वह तो चाहे पाँच उबासी खाए लेकिन एक साथ उबासी नहीं खाती, वह आपका पेट खाली नहीं कर देती!
प्रश्नकर्ता : खुद की प्रकृति को पहचाना कैसे जाए?
दादाश्री : देखने से पहचाना जा सकता है। निरीक्षण करने से पहचाना जा सकता है।
प्रकृति को देखनेवाला व्यक्ति प्रकृति से बिल्कुल जुदा ही होता है, तभी देख सकता है। संसार व्यवहार में प्रकृति को देखनेवाले नहीं होते, प्रकृति को स्टडी करनेवाले होते हैं। ज्ञान के बाद 'खुद' आत्मा बनकर प्रकृति को देखता है, कि इसकी कैसी-कैसी आदतें हैं? मन-वचन-काया की आदतें और उसके स्वभाव को देखता है।
खींचे प्रकृति की पिक्चर, मूल कैमरे से आप भी अपनी प्रकृति की फोटो खींच सकते हों। साल-दो साल