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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
हो गए हैं ज्ञान लिए लेकिन आप ज़रा कुछ फोटो तो खींचकर लाओ।
और जगत् के लोगों से कहकर देखो, साधु-आचार्यों से कहकर देखो कि फोटो खींचकर लाओ, तो वैसा करना नहीं आएगा। एक भी फोटो काम नहीं आएगी इन साधु-आचार्यों की क्योंकि कैमरे नहीं हैं न! उन्होंने खुद का कैमरा घर पर बनाया हुआ है, अंहकार का। कैमरा तो मूल मौलिक होना चाहिए। यह तो अहंकार रूपी कैमरा है, क्या होगा इससे? फोटो कैसे खिंचेगी उसकी? समझने के लिए ज़रा सूक्ष्म बात है यह।
प्रश्नकर्ता : ज्ञान मिलने के बाद व्यक्ति की प्रकृति काम नहीं करती, लेकिन समष्टि की प्रकृति तो काम करेगी न? वह तो अपना काम करेगी न?
दादाश्री : वह जो करे उसे, उसे भी हमें देखना है और इस प्रकृति को भी देखना है। ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव में आ जाना है।
प्रकृति में मठिया या उसका स्वाद प्रकृति मठिया (खास प्रकार का गुजराती पकवान जो दिवाली पर बनाया जाता है) खाती है। ये सभी महात्मा जान चुके हैं इसलिए अमरीका में, यहाँ जहाँ भी जाए हैं, वहाँ पर मेरे लिए मठिये बनाकर रखते हैं लेकिन इस साल सिर्फ दो ही लोगों के यहाँ पर खाए हैं, बस। जो माफिक आए वह प्रकृति। सभी के यहाँ पर माफिक नहीं आया। तब ज़रा सा खाकर मैं रहने देता हूँ। यानी अगर कोई ऐसा कहे कि इन्हें मठिये अच्छे लगते हैं तो वह बात मान नहीं सकते। मठिये में रहा हुआ स्वाद, वह मेरी प्रकृति में है।
प्रश्नकर्ता : और फिर यह कैसा है दादा कि अपनी प्रकृति को अभी भाता है लेकिन फिर से एक महीने बाद वह चीज़ नहीं भाती। बदल जाती है।
दादाश्री : अरे तीन ही दिनों में बदल जाती है। दिनभर में भी बदल जाती है। आज पराठे भाते हैं और कल नहीं भाते।