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[१.८] प्रकृति के ज्ञाता-दृष्टा
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प्रश्नकर्ता : वह तो मैंने देखा है। हमें पता चलता है कि यह चंदूभाई को दुःख रहा है, उससे हमें क्या लेना-देना?
दादाश्री : उसमें अगर कमी रह जाए तो ज्ञायकता नहीं रह पाती। प्रश्नकर्ता : पूरी रात ऐसे निकाली है, दादाजी।
दादाश्री : हाँ, वह तो निकालते हैं, निकालते हैं। लेकिन सभी से नहीं निकाली जा सकती। ये सब चीजें ऐसी नहीं हैं क्योंकि अनादि का अभ्यास है न उसे। कभी दो-चार मच्छर काट लें तो पता चल जाएगा। यों जो मारती है वह तो प्रकृति मारती है। प्रकृति के वे दोष तो निकलेंगे, जब निकलते हैं तभी आप परेशान हो उठते हो, वह भूल है।
प्रश्नकर्ता : वह तो सिखा दिया था आपने। फिर यहाँ कौन उलझेगा दादाजी! फिर तो उनका जो हिसाब है, वे लेकर जाएँगे। हमें क्या झंझट?
दादाश्री : हाँ, हिसाब चुकाते हैं लेकिन ऐसा रहना चाहिए न कि वह हिसाब है! पूरे रूम में बहुत सारे मच्छर हों तो सो जाता है। लेकिन अगर सिर्फ चार हों तो उनके लिए झंझट है इन्हें क्योंकि अगर बहुत मच्छर हों, तो मच्छरों में ही सो जाना है इसलिए सो जाता है शांति से लेकिन अगर चार ही हों तो उन्हें देखता रहता है। मेरी मच्छरदानी के अंदर दो मच्छर घुस जाएँ तो उन्हें भी नीरू बहन निकाल देती हैं क्योंकि उनके प्रति जो चिढ़ घुस चुकी है उसे निकलने में देर लगती है। पिछले जन्म की चिढ़ घुसी हुई हो, तो इस प्रकृति में गुथी हुई रहती है, इसलिए देर लगती है।
अब जैन शास्त्र कहते हैं कि बाईस परिषह सहन करो। अब चारों में से एक परिषह भी सहन हो सके ऐसा नहीं है। इस दुषमकाल के जीव परिषह कैसे सहन करेंगे? यह तो विज्ञान है इसलिए अपनी गाड़ी चल रही है। नहीं तो बाईस परिषह में, अगर कंकड़ों पर सुलाया गया हो तो भी हमें नरम बिस्तर याद नहीं आना चाहिए। तब कैसे गालीचे में सोते थे' वगैरह ऐसा सब याद नहीं आना चाहिए। वे बाईस परिषह क्या ऐसे हैं कि अभी सारे जीते जा सकें? वहता, यह विज्ञान है इसलिए सारा हल आ गया।