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[१.८] प्रकृति के ज्ञाता-दृष्टा
१११ तो सब सही हो जाता है। खुद चेतन है और प्रकृति निश्चेतन-चेतन है। तो फिर निश्चेतन-चेतन, चेतन का क्या बिगाड़ सकता है?
प्रश्नकर्ता : जब तक वह साथ में है, तब तक तो इसमें बाधक रहेगी।
दादाश्री : खुद मज़बूत हो जाए तो बाधक नहीं रहेगी।
प्रश्नकर्ता : तो यह ज्ञान लेने के बाद जो खुद की प्रकृति को देखता है, वह खुद कौन है जो देखता है?
दादाश्री : वही, आत्मा ही देखता है न। और कौन? सबकुछ आत्मा के सिर पर। आत्मा अर्थात् प्रज्ञा, वही फिर। यहाँ पर फिर सीधे आत्मा ही है, ऐसा मत मानना। आत्मा अर्थात् पहले प्रज्ञा ही सबकुछ, वही सारा कार्य करती है लेकिन हम आत्मा कहते हैं। कहते हैं, बस इतना ही!
प्रश्नकर्ता : वह जब प्रकृति को देखता है, तब प्रकृति शुद्ध मानी जाती है या वे जब उसके तत्वों को देखता है, तब शुद्ध माना जाता है?
दादाश्री : जब से प्रकृति को देखना शुरू किया, जब खुद तत्व स्वरूप हो गया, तब प्रकृति भी शुद्ध हो गई। जब तक अहंकार है तब तक प्रकृति शुद्ध नहीं कही जा सकती।
हम अब शुद्धात्मा हो गए हैं, पुरुष हो गए हैं इसलिए मोक्ष के लायक हो गए हैं लेकिन मोक्ष में नहीं जा सकते। क्यों? तो वह इसलिए कि यह प्रकृति क्या कहती है, पुद्गल क्या कहता है कि 'आप तो चोखे हो गए, शुद्ध हो गए लेकिन हम तो चोखे, शुद्ध थे न, और आपने बिगाड़ा है हमें, इसलिए हमें भी फिर से शुद्ध कर दो,' तभी छूट पाओगे, नहीं तो छूट नहीं पाओगे नियम अनुसार।' यानी कि जब हम उसके दाग़ वगैरह धोकर शुद्ध कर देंगे तब चला जाएगा, शुद्ध करते ही चला जाएगा। प्रतिक्रमण करने से शुद्ध होकर चला जाएगा। अब हम तो शुद्ध हो गए लेकिन जब तक इसे शुद्ध नहीं करेंगे, तब तक अपनी ज़िम्मेदारी रहेगी न?
प्रश्नकर्ता : किस तरह शुद्ध करना है?