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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
सब देख सकते हैं कि मन क्या-क्या कह रहा है, मन क्या-क्या सोच रहा है। उसे देखना ही है, फिल्म है। वह ज्ञेय है और हम ज्ञाता हैं । यह ज्ञेय-ज्ञाता का संबंध है। वह फिल्म है और मैं देखनेवाला, दोनों जुदा हो गए।
प्रकृति के ज्ञेय सूक्ष्म, सूक्ष्मतर प्रश्नकर्ता : क्या ऐसा है दादा कि प्रकृति के सभी ज्ञेय देख लेने के बाद दरअसल ज्ञेय दिखने की शुरुआत होती है?
दादाश्री : उसके बाद तो बहुत ज्ञेय देखने बाकी रहते हैं। उसके बाद तो सारे बीचवाले बाकी रहते हैं। बीचवाले सारे बहुत तरह-तरह के ज्ञेय हैं। पहले प्रकृति के स्थूल ज्ञेय हैं।
प्रश्नकर्ता : बीचवाले यानी कैसे?
दादाश्री : सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, ये सभी प्रकृति के मिक्स्चर हैं। मिश्रचेतन जैसे।
प्रश्नकर्ता : तो ये क्रोध-मान-माया-लोभ किसमें आते हैं? दादाश्री : वह सब सूक्ष्म प्रकृति है।
प्रश्नकर्ता : उन ज्ञेयों को फिर देखना है? हालांकि वे तो दिखाई देते हैं दादा, कुछ यह भी दिखता है और वहवाला भी दिखता है।
दादाश्री : नहीं। नहीं दिखता। वे दिख जाते तो उसके चेहरे पर परिवर्तन नहीं आता। वह तो, जो बहुत स्थूल होता है, वही दिखाई देता है। सूक्ष्म तो दिखते ही नहीं है न! चेहरे पर असर होता ही रहता है न! वे सब देखते-देखते तो आगे जाकर उसके बाद के सभी ज्ञेय दिखेंगे। यह प्रकृति दिखेगी उसके बाद फिर बहुत अच्छी तरह आगे बढ़ेगा। प्रकृति ही रोकती है यह सब। तेरी प्रकृति दिखाई देती है तुझे?
प्रश्नकर्ता : स्थूल-स्थूल दिखता है। मोटा-मोटा दिखता है। दादाश्री : मोटा भी कुछ नहीं दिखता! कौन सा मोटा दिखता है?