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[१.७] प्रकृति को ऐसे करो साफ...
प्रश्नकर्ता : तो फिर? दादाश्री : आचरण भी वैसा ही होना चाहिए न? प्रश्नकर्ता : वह पुद्गल का स्वभाव माना जाता है न?
दादाश्री : हाँ, पुद्गल का स्वभाव भी ऐसा हो जाता है जैसे भगवान की हूबहू नकल कर रहा हो। अर्थात् वह भी भगवान और ये भी भगवान दिखाई देते हैं। लोग कहते हैं कि ये भगवान ही हैं।
प्रश्नकर्ता : यों पूरा रिलेटिव भाग (पहलू) भगवान जैसा हो जाता है? पूरी प्रकृति भगवान जैसी हो जाती है, ऐसा है?
दादाश्री : हाँ, क्षमा वैसी ही दिखाई देती है, नम्रता भी वैसी ही दिखाई देती है। सरलता भी वैसी ही दिखाई देती है, संतोष भी वैसा ही दिखाई देता है। किसी भी चीज़ का इफेक्ट ही नहीं! पोतापणां (मैं हूँ और मेरा है ऐसा आरोपण, मेरापन) नहीं रहा, वह सब लोगों की नज़र में आता है। बहुत सारे गुण उत्पन्न हो जाते हैं। वे आत्मा के गुण नहीं हैं और इस पुद्गल के भी गुण नहीं हैं, वैसे गुण उत्पन्न हो जाते हैं।
क्षमा तो आत्मा का भी गुण नहीं है और पुद्गल का भी गुण नहीं है, सहज क्षमा। कोई गुस्सा करे, तो हम क्षमा नहीं करते लेकिन यों सहज क्षमा ही रहती है। लेकिन सामनेवाले को ऐसा लगता है कि 'इन्होंने क्षमा कर दिया।' अर्थात् यहाँ पर पृथक्करण हो जाने पर हमें समझ में आ जाता है कि मुझे इससे लेना-देना नहीं है न!
प्रश्नकर्ता : यह तो क्षमा के लिए हुआ। इसी प्रकार सरलता के लिए कैसा होता है?
दादाश्री : हाँ, सरलता तो होती ही है न! सामनेवाले की दशा उलटी हो तब भी सरल को वह सब सीधा ही दिखता है। कैसी सरलता है! नम्रता!! इसमें आत्मा का कुछ है ही नहीं।
प्रश्नकर्ता : यानी खुद में से क्रोध-मान-माया-लोभ चले जाते हैं, इसलिए ऐसे गुण प्रकट होते हैं?