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[१.७] प्रकृति को ऐसे करो साफ...
प्रश्नकर्ता: और दादा, औरों की प्रकृति को माफ किया जा सकता है लेकिन क्या खुद की प्रकृति को माफ किया जा सकता है?
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दादाश्री : किया जा सकता है न! माफ करना ही चाहिए ! माफ नहीं करोगे तो और कोई ऐसा रास्ता नहीं है कि जो इतना सरल हो । प्रश्नकर्ता: दादा ऐसे माफ करना भी एक प्रकार का जजमेन्ट हो
गया।
दादाश्री : हाँ, उसे जजमेन्ट कहो या कुछ भी कहो। प्रकृति के आधार पर जजमेन्ट है और यहाँ ज्ञान में जजमेन्ट नहीं होता। जजमेन्ट तो, जहाँ पर अहंकार के सौदे होते हैं, वहाँ जजमेन्ट कहलाता है ।
प्रश्नकर्ता : प्रकृति को माफ कैसे किया जा सकता है?
दादाश्री : न तो उस पर चिढ़, न ही कुछ और। खुद की प्रकृति पर चिढ़ना नहीं है, रक्षण नहीं करना है । और माफ कर देना यानी कि उसके प्रति राग नहीं और द्वेष भी नहीं, वीतरागता । खराब तो निकलेगा ही । ज्ञानी का भी खराब माल निकलता है कभी, लेकिन उसके प्रति हम वीतराग हो जाते हैं तुरंत !
प्रकृति से जो कुछ भी होता है, वह किस में हैं? उदयकर्म आया है। प्रकृति को जो भोगना पड़ा, वह भोगते हो। मैं जो यह कहता हूँ, तो वापस मन में ऐसा होता है कि ऐसा क्यों कहा था ! लेकिन उसमें चलता नहीं है अपना क्योंकि प्रकृति में गुथा हुआ है, तो वह बोलेगी ही। उसे हमें देखते ही रहना है। मैं जो कहना चाहता हूँ वह समझ में आया या नहीं? कम्पलीट! समझ में आ जाए तो बहुत काम हो जाएगा न !
दोष दिखाई दे वहाँ पर होना खुश
जिसे खुद को नहीं बंधना हो, उसे कौन बाँधे ?
प्रश्नकर्ता : वह ठीक है लेकिन अगर प्रकृति के ऐसे सभी पहलू खुद को नहीं दिख रहे हों, तो .....