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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
संभालकर काम निकाल लेना है उससे, तब प्रकृति वश में हो सकती है। गुलाब कब वश में आता है ? काँटे नहीं लगें उस तरह संभालकर हम फूल ले लें, तब गुलाब वश में आता है । उसी तरह से, हम यह कहना चाहते हैं। वर्ना गुलाब क्या कभी बदलेगा? वह तो आपने हाथ डाला कि काँटा लगेगा ही। काँटा लगता है न? मुझे लगता है माली को छोड़ देते होंगे ! नहीं? माली को भी नहीं छोड़ते, जो उन्हें सींचता है? किसी को नहीं छोड़ता?
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अनटाइमली बम पर कंट्रोल ?
प्रश्नकर्ता : हमें इतने साल हो गए ज्ञान लिए, फिर भी अभी तक प्रकृति अपनी भूमिका निभाए (काम किए) बगैर क्यों नहीं, रहती?
दादाश्री : यह प्रकृति तो भूमिका निभाएगी ही न ! प्रकृति क्या है, वह नहीं समझना चाहिए? प्रकृति अर्थात् अनटाइमली बम । कब फूट जाए, वह कहा नहीं जा सकता ! फूटेगी तो अवश्य । वह खुद के काबू में नहीं
है!
प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, अभी भी संयम क्यों नहीं आता?
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दादाश्री : लेकिन आपके काबू में नहीं है। फिर भी ऐसा बोलने की ज़रूरत नहीं है। उसे कंट्रोल करने जाओगे तो मूर्ख बनोगे । उसे कंट्रोल नहीं करोगे तो और ज़्यादा मूर्ख बनोगे । अर्थात् बात को समझने की ज़रूरत है हमें। समझेंगे तभी बात बनेगी। समझना अर्थात् क्या कि प्रकृति को जो होता रहता है, उसे देखते रहना है
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प्रश्नकर्ता : हमें अगर कोई कुछ अपमानजनक बात कह दे तब इतने सालों बाद भी, हमें संयम नहीं रहता तो इसका अर्थ ही क्या है?
दादाश्री : उसमें तो अंदर प्रकृति ज़ोर से आवाज़ भी कर सकती है। दस सालों से वह धीरे से बोल रही थी और उस दिन तो आवाज़ तेज़ हो जाती है क्योंकि अंदर बारूद ज़्यादा भर गया है, इसलिए हमें कोई झंझट नहीं करनी है। उसे हम जुदा 'देख सकते हैं या नहीं, इतना ही समझ लेने