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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
कि ‘ओहोहो, चंदूभाई आपने तो सिर्फ रौब से ही चढ़ा दी।' इसे ' देखना' कहते हैं, प्रकृति को ‘जानना' कहते हैं । तू ऐसा करता है? चंदूभाई खाएँ उसे तू देखता रहे कि ओहोहो, मिर्च खूब खाता है, फलानी दाल नहीं खाता, जलेबी बहुत खाता है !
डिकंट्रोल्ड प्रकृति के सामने .......
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प्रश्नकर्ता : अगर प्रकृति बगैर कंट्रोल की हो तो?
दादाश्री : लेकिन वह तो अपने आप बगैर कंट्रोल की प्रकृति ही उसे फल दे देगी, सीधे ही। उसे हमें सिखाने नहीं जाना पड़ेगा। अत: अगर कंट्रोलवाली प्रकृति हो तो उसे सुख ही मिलता है और बगैर कंट्रोलवाली प्रकृति होती है तो अपने आप ही उसका फल वहीं के वहीं मिल ही जाता है। पुलिसवाले के साथ बगैर कंट्रोल की प्रकृति करके देखना । वहीं के वहीं फल मिल ही जाएगा। जहाँ देखो वहाँ । घर में भी, सभी जगह । अर्थात् बगैर कंट्रोलवाली हो, तो उसे वहीं के वहीं फल मिल ही जाता है अपने आप ही, अंदर ही फल मिल जाता है। मिले बिना रहता ही नहीं । बगैर कंट्रोल के दौड़-भाग करता है । अंत में ठोकर खाकर ठिकाने पर आ जाता है। प्रश्नकर्ता: मुद्दे में पूछना यह है कि कंट्रोल हो तो अच्छा है या
नहीं?
दादाश्री : कंट्रोल हो तो उत्तम कहलाएगा। बगैर कंट्रोलवाली हो तो उसे खुद को मार पड़ती ही है। कंट्रोल में रहे, उसके जैसा तो कुछ भी नहीं है और ज्ञान के आधार पर प्रकृति कंट्रोल में रह सकती है ।
प्रश्नकर्ता : ज्ञान से कंट्रोल रहना अर्थात् सहज रूप से, ऐसा?
दादाश्री : सहज शब्द हो ही नहीं सकता न ! पुरुषार्थ से रहता है। जिसे सहज रूप से रहता हो, उसे तो फिर आगे कुछ करने का रहता ही नहीं न! खत्म ही हो गया, काम पूरा हो गया।
प्रकृति का कर तू समभाव से निकाल
जो माफिक आए न, हम वह खाते हैं । फिर भी प्रकृति जाती नहीं
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