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[१.६] क्या प्रकृति पर प्रभुत्व प्राप्त किया जा सकता है?
वही है रोकनेवाला बड़ा कचरा
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आपके कचरे अलग, इनके कचरे अलग |
प्रश्नकर्ता : कचरे तो पुद्गल के गुण नहीं होते? कुछ चीज़ों में तो उसकी खुद की भी इच्छा नहीं है । अतः ये सब प्राकृतिक गुण हैं न? पुद्गल केही गुणों को ऐसा कहते हैं न, अच्छे या बुरे ?
दादाश्री : पुद्गल के हुए उससे कोई हर्ज नहीं है। लेकिन आत्मा पर पुद्गल का इतना ज़्यादा असर हो गया है कि आत्मा का चलना-फिरना बंद हो गया है, परहेज़ हो गया है। इतना असर है पुद्गल का। इसमें से ज़रा पचास प्रतिशत कम हो जाए तो आत्मा मुक्त हो जाएगा, तो फिर आत्मा शक्तिशाली बनेगा ।
प्रश्नकर्ता : तो आप कहते हैं न 'प्रकृति का एक भी गुण मुझ में नहीं हैं और मेरा एक भी गुण प्रकृति में नहीं हैं । '
दादाश्री : हाँ, लेकिन 'तुझ में नहीं है' यानी कि तेरापन रहना चाहिए न? प्रकृति का एक भी गुण 'खुद का' नहीं मानें और 'खुद के' सभी गुणों को जानें, वे 'ज्ञानी' । एक भी गुण को 'खुद का' माने तो संसार में फँसता है। प्रकृति का बहुत दबाव है न! प्रकृति इंसान को, आत्मा तो न जाने कहाँ रहा, लेकिन पशु तक बना देती है ।
प्रश्नकर्ता: दादा ने कहा है न अभी कि 'इनके कचरे अलग, आपके कचरे अलग। ' हमारे कचरे में क्या है? कैसा है ?
दादाश्री : हर एक के कचरे अलग-अलग ही होते हैं न ! वे भी दुर्गंध मारने लगते हैं । सुगंध नहीं आती। लेकिन ये सभी कचरे निकल जाएँगे, कुछ ही दिनों में, जिनकी इच्छा है उनके निकल जाएँगे ।
प्रश्नकर्ता : आपकी हाज़िरी में ही निकल जाएँगे न?
दादाश्री : हाँ, किसी-किसी के तो वे हाज़िरी में भी नहीं निकलते।