________________
८६
आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
दादाश्री : वह तो अपने आप ही होता है। उसके कर्म का उदय हो तो उपशम हो जाती है। और उसके उपशम हो जाने के बाद जागृति रहे तो वह बहुत काम की नहीं है। प्रकृति उपशम न हो, प्रकृति प्रतिरोध करे, उस समय जो जागृत रहे, वह ज्ञानी कहलाता है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन ज्ञानी पद तो जब प्रकृति उपशम में से आगे जाकर क्षय हो चुकी हो, तब उत्पन्न होता है न?
दादाश्री : वह तो पूरी क्षय हो जाती है। जब प्रतिरोध करती है तब वह तो क्षय होने के लिए आती है। इसलिए उससे कहना कि प्रतिरोध कर। उपशम करना अर्थात् चक्कर लगवाना। जब माँगनेवाले को दे देते हैं तब निबेड़ा आता है, नहीं तो वापस आएँगे ये, 'आओ, आओ साहब।' अरे, पाँच हज़ार दे दे न यहाँ से। साहब आए हैं। वे माँग रहे हैं इसलिए। लेकिन यह तो उसे वापस निकालना है न इसलिए मस्का मारता है, जैसे कि वह छोड़ देगी! छोड़ देती है क्या? नहीं छोड़ती? है न? बल्कि चाय-पानी पीकर जाती है और रौब मारकर जाता है। मुफ्त का चाय-नाश्ता कर जाती है और कर्ज तो खड़ा ही रहता है। उसे कहते हैं उपशम।
प्राकृतिक गाँठों को रोके ज्ञान प्रकाश प्रश्नकर्ता : मान लीजिए कि कोई लोभ की गाँठ हो तो क्या ऐसा है कि उस समय ज्ञान का प्रकाश कम हो जाता है? यानी कि प्रकृति के आधार पर यह ज्ञान का प्रकाश है? एक तरफ कम-ज़्यादा होता है या सिर्फ जागृति के आधार पर कम-ज़्यादा होता है?
दादाश्री : प्रकृति अंतराय डालती है उसमें। इस ज्ञान का तो जो प्रकाश दिया है वह फुल प्रकाश है लेकिन यह प्रकृति बीच में दखलंदाजी करती है।
प्रश्नकर्ता : प्रकृति जो दखल करती है, वह उसके पिछले कर्म के अधीन, वे उसे दखल करवाते हैं?
दादाश्री : वही! और नहीं तो क्या? वही प्रकृति है। पिछले कर्म,