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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
प्रश्नकर्ता : यानी कि वह जो भी करे, उसे करने देना हैं? दादाश्री : हाँ।
प्रश्नकर्ता : लेकिन यों सामान्य तौर पर जब खुद को देखते हैं तब ऐसा लगता है जैसे खुद की प्रकृति को देख रहे हों कि सुबह से शाम तक प्रकृति क्या कर रही है!
दादाश्री : प्रकृति को ही देखना है।
प्रश्नकर्ता : और आसपास देखें तो औरों की प्रकृति भी दिखाई देती है। ऐसा होता है।
दादाश्री : सबकुछ दिखेगा। वह जो दिखाई देता है न, उसमें देखना चाहिए। हमें कहाँ कमियाँ निकालनी हैं? प्रकृति तो दिखेगी। प्रकृति में कमियाँ किसे कहते हैं?
प्रश्नकर्ता : दादा, लेकिन ऐसा है कि पहले की बहुत सारी आदतें हैं न, इसलिए कभी-कभी कह देते हैं कि ऐसा नहीं होना चाहिए। ऐसा जो हो रहा है वह नहीं करना चाहिए।' ऐसा कह देते हैं।
दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं। प्रकृति में कमियाँ कौन देखता है? जिसमें अभी तक भ्रांति के गुण हैं, वही देखता है। बाकी, भगवान के वहाँ कमियों जैसा है ही नहीं। सबकुछ ज्ञेय ही है। भगवान के वहाँ यह अच्छा
और यह बुरा है, ऐसा भाव वहाँ पर नहीं है। द्वंद्व नहीं है वहाँ पर। इसलिए फिर वहाँ पर ऐसा नहीं देखना है। इसलिए अगर कुछ खराब हो तो हम उसे भी देखते हैं अच्छी तरह से। सबकुछ देखते हैं लेकिन अंदर हमारा भाव नहीं बिगड़ता। हमारा ज्ञान नहीं बिगड़ता। यह अच्छा-बुरा तो समाज ने बनाया है। अपने में कुछ गलत हो लेकिन वह औरों को अच्छा भी लग सकता है। मुझे जलेबी पसंद हो और आप मना करें तो इसमें अच्छे-बुरे का सवाल ही कहाँ रहा? यह तो, फेक्ट समझ लेने की ज़रूरत है ज्ञानी से। हम निरंतर इसी तरह रहते हैं। तो एक-एक फेक्ट को समझ लेना है साथ में बैठकर। आपको जो अड़चन है वह पूछ लेना और आप अड़चन