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[१.६] क्या प्रकृति पर प्रभुत्व प्राप्त किया जा सकता है?
हम जिसे ज्ञान देते हैं, दस-पंद्रह साल में उसकी प्रकृति खत्म हो जाती है। प्रकृति में जो विरोधाभास लगता है, वह उसकी बाद की लाइफ में नहीं रहता। फिर जैसी लोगों को अनुकूल आए, प्रकृति वैसी हो जाती है। प्रकृति सौम्य हो जाती है क्योंकि पहलेवाली प्रकृति खाली हो जाती है, जबकि अज्ञानी में तो प्रकृति खाली होती है और ऊपर से भरता जाता है। अतः एक तरफ प्रकृति खाली होती है और दूसरी तरफ वह भरता जाता है, दोनों साथ में हैं। इनमें (महात्माओं में) नया नहीं भरता । सिर्फ खर्च ही होता है, इसलिए खत्म हो जाती है फिर ।
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ज्ञान के बाद में संवर (कर्म का चार्ज होना बंद हो जाना) होता है और निर्जरा होती है इसलिए उन्हें अन्य कुछ नया नहीं मिलता, जबकि, इनमें तो बंध (कर्मबंधन) और निर्जरा दोनों साथ में हैं । अतः वापस बंध पड़ता जाता है। वह सारी अज्ञानी की दशा है, इसलिए मरते दम तक जाती नहीं है। प्रकृति बढ़ती है बल्कि ।
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प्रश्नकर्ता : खुद जानने की कोशिष करे और निकाले तभी खुद की प्रकृति जाती है ?
दादाश्री : अज्ञानी खुद किस तरह से निकाल सकेगा? प्रकृति से खुद बंधा हुआ है। प्रकृति की समझ ही नहीं है कि मेरी यह प्रकृति गलत है क्योंकि जो अहंकार है वह गलत प्रकृति को भी सही मानता है । अहंकार हमेशा ही अंधा होता है इसलिए उसे सत्य-असत्य का भान ही नहीं रहता और उसकी जो बुद्धि है वह उसका दुरूपयोग करती है। अहंकार से कहती, 'ठीक है, आप जो कह रहे हो, वह ठीक ही है।' इसलिए फिर अहंकार वापस शुरू हो जाता है अंधा होकर, इसलिए उसे खुद का एक भी दोष नहीं दिखता । प्रकृति को देखें किस तरह?
प्रश्नकर्ता : आपने कहा है कि प्रकृति को 'देखना ' ही है और अब यह बदल नहीं सकती । फिर तो कोई प्रश्न ही नहीं रहा ।
दादाश्री : प्रकृति को 'देखना ' है अर्थात् पतंग उड़ानेवाले को तू देख। पतंग उड़ानेवाले को तू दूर रहकर 'देखता' रह और तू कहना ज़रूर