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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
इंजेक्शन भी दे देता है। प्रकृति तो बहुत सुंदर काम करती है। ऐसा, जो कि शरीर के हित में होता है।
प्रश्नकर्ता : जब शरीर मर जानेवाला हो, तब डॉक्टर चाहे कितना भी इलाज करें फिर भी प्रकृति के हिसाब से तो यह शरीर खत्म हो ही जाता है न?
दादाश्री : चलेगा ही नहीं न। डॉक्टर तो निमित्त है बीच में। बाल कटवाने के लिए नाई जितना निमित्त है, उतना ही निमित्त यह है।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् उस समय उसके शरीर का विलय हो जाना, वास्तव में तो वह उसके हित में ही है न?
दादाश्री : हित में ही, बिल्कुल हित में है। हित से बाहर नहीं चलती है यह प्रकृति। पेट में दुखाती है वह भी हित में है क्योंकि वह दर्द निकालती है, बढ़ाती नहीं है। बाद में ज़्यादा जोखिम आएगा उसके बजाय पहले से ही उस जोखिम को निकाल देती है!
इस ज्ञान के बाद खुद प्रकृति का मालिक बनता ही नहीं है न, इसलिए दर्द अपने आप निकल ही जाता है। मालिकी रहे, तब तक वह कम नहीं होता। जब मालिकी नहीं रहे तो निकल जाता है सभी कुछ। प्रकृति शुद्धता को भजती जाती है। जब तक मालिकी रहे, तब तक प्रकृति खुद, अपना कार्य नहीं कर सकती। मालिक दखल किए बगैर रहता नहीं है न? मालिक दखल करता है?
प्रश्नकर्ता : हाँ, पकड़े रखता है, मालिक बनकर।
दादाश्री : छेड़ता है, छेड़ता! उसका इलाज करवाता है, फलाना करवाता है, छेड़-छाड़ हो जाती है। वर्ना यदि कभी इसमें दखल नहीं करो तो प्रकृति शुद्ध ही होती जाएगी। प्रकृति का स्वभाव ही है शुद्ध होने का, लेकिन अगर दखल नहीं करेंगे तो। लेकिन अज्ञानी तो दखल किए बगैर रहता ही नहीं न! आप नहीं करते लेकिन अज्ञानी तो करता है न? 'मुझे हो गया' कहा कि और भी ज्यादा बढ़ जाता है। 'मुझे हो गया' कहा कि बढ़ा।