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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
बाद में बात करना। लेकिन यह इगो ऐसा पागल है। मन का स्वभाव ऐसा नहीं है, इगो का है। मन तो पूर्ण नियमवाला है।
जागृति लाती है प्रकृति को नियम में प्रश्नकर्ता : अर्थात् ज्ञान की जागृति रहे तो प्रकृति अपने आप नियम में आती जाती है। क्या यह बात सही है?
दादाश्री : आपकी भी प्रकृति नियम में आती जा रही है, वर्ना तब तक ज्ञान उतर ही नहीं सकता! ज्ञान अंदर उतर चुका हो तो प्रकृति नियम में आने लगती है फिर।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् नियमिततावाली प्रकृति हो, तो उसमें और ज्ञान में कोई संबंध है क्या? नियमित प्रकृति अपने ज्ञान में कुछ हेल्प करती है क्या? श्रीमद् राजचंद्र का भी एक वाक्य है; देह नियमिततावाला होना चाहिए, वाणी स्याद्वाद होनी चाहिए। अर्थात् नियमितता को बहुत महत्व दिया गया है। और अभी आपने भी कहा कि अंजीर नियम अनुसार ली जाए तो अच्छा है।
दादाश्री : हाँ, तो अच्छा है न!
प्रश्नकर्ता : हाँ, तो प्रकृति का यह जो नियम है, वह व्यवहार को स्पर्श करता है, अब वह ज्ञान में किस तरह से मददगार है?
दादाश्री : नियम वाली प्रकृति व्यवहार को हेल्प करती है न और व्यवहार को हेल्प करे न, तो ज्ञान में हेल्प रहती है। नियम के बिना रहे तो फिर ज्ञान में हेल्प रहेगी ही नहीं न! नियम रहना चाहिए। ऐसा नहीं कहते हैं अपने यहाँ कि नियम होना चाहिए। यदि हो सका तो ठीक है, उसका आग्रह नहीं है।
प्रश्नकर्ता : अब यह नियम क्या होना चाहिए, इसे भी जानना ज़रूरी है न?
दादाश्री : वह शरीर पर आधारित है न! खुद नियम जानता है कि