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[१.४] प्रकृति को निर्दोष देखो
अर्थात् अगर प्रकृति को हम पहचान गए कि इस व्यक्ति में यह गुण है, तो फिर उसके साथ वीतरागता रहेगी। हम जानते हैं कि यह इसका दोष नहीं है, यह तो उसकी प्रकृति ही ऐसी है !
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अतः अगर किसी का भी दोष दिखे तो वह अपना ही दोष है । अपना विज्ञान ऐसा कहता है कि किसी भी व्यक्ति का दोष दिखे तो वह आपका ही दोष है। आपके दोष की वजह से यह रिएक्शन आया है। आत्मा भी वीतराग है और प्रकृति भी वीतराग है, लेकिन आप जैसा दोष निकालते हो, वैसा ही उसका रिएक्शन आता है।
पुरुष वीतराग है और प्रकृति भी वीतराग है । पुरुष के साथ रहने के बावजूद भी वीतराग रही है क्योंकि यह प्रकृति जड़ है न! वह चेतन नहीं है। वह स्वभाविक रूप से वीतराग है । जिस प्रकार से आत्मा स्वभाविक रूप से वीतराग है उसी तरह यह भी स्वभाविक रूप से वीतराग है ।
प्रश्नकर्ता : प्रकृति की वीतरागता और आत्मा की वीतरागता में क्या फर्क है?
दादाश्री : दोनों में कोई फर्क नहीं है लेकिन आज आत्मा (व्यवहार अर्थात्) वीतरागता में नहीं है । अत: यह प्रकृति दखल करती है । इसीलिए प्रकृति अपना रिएक्शन देती है, बस ! वर्ना प्रकृति अपने आप कुछ भी नहीं करती है।
प्रकृति को ऐसे मोड़ते हैं ज्ञानी
लोग समझते हैं कि दादा कमरे में जाकर आराम से सो जाते हैं, उस बात में माल नहीं है। पद्मासन लगाकर एक घंटे तक, वह भी इस सतहत्तर साल की उम्र में पद्मासन लगाकर बैठता हूँ । पैर भी मुड़ जाते हैं और इसीलिए आँखों की शक्ति, आँखों का प्रकाश, वगैरह सब बना हुआ है । क्योंकि प्रकृति की मैंने कभी भी निंदा नहीं की है । कभी उसकी निंदा नहीं की। उसका अपमान नहीं किया। लोग निंदा करके अपमान करते हैं । प्रकृति जीवित है, उसका अपमान करोगे तो उसका असर होगा। इसका (जड़ का ) अपमान करने से असर होता है । क्या असर होता है? तो वह यह कि, उसका प्रत्याघात