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[१.४] प्रकृति को निर्दोष देखो
में कपट हो तो उसे भी देखो,' जबकि क्रमिक मार्ग में कपट चलेगा ही नहीं न! अहंकार को ही बिल्कुल शुद्ध करते जाना है! वहाँ पर चलेगा ही नहीं।
अर्थात् ऐसे करते-करते अगर दो-तीन जन्मों में भी खत्म हो जाए तो भी बहुत हो गया न! अरे, दस जन्मों में हो जाए तो भी क्या नुकसान होनेवाला है? लेकिन दोषित नहीं है कोई भी।
ज्ञानी की दृष्टि की निर्दोषता प्रश्नकर्ता : निर्दोषता किसे कहते हैं? कोई भी व्यक्ति निर्दोष कब दिखाई देता है? निर्दोषता सहज रूप से होती है या कैसे?
दादाश्री : अब जब हम संपूर्ण रूप से निर्दोष हो जाएँ तभी सामनेवाला मुझे निर्दोष दिखाई देगा, नहीं तो नहीं दिखेगा। जब तक हम दोषित हैं, तब तक वह दोषित दिखाई देता है। मुझे पूरा जगत् निर्दोष ही दिखाई देता है। मुझे अर्थात् मैं जब दादा भगवान के रूप में रहता हूँ न, तब पूरा जगत् निर्दोष दिखाई देता है और अगर कभी 'अंबालाल' में आ जाऊँ उस समय निर्दोष दिखता ज़रूर है। प्रतिति में रहता है लेकिन कभी शायद आचरण में न भी हो। उस समय आपकी भूल भी निकाल लेता हूँ।
बाकी, अगर हमें निर्दोष ही दिखें तो फिर भूल कहाँ से दिखाई देगी? लेकिन फिर वह तो बाद में हमारा ज़रा धो देते हैं न, तुरंत ही, ऑन द मोमेन्ट तो सबकुछ साफ, क्लियर भी दिखाई देता है बीच में। मैं कहीं आपकी प्रकृति के दोष देखने नहीं आया हूँ, मैं आपकी प्रकृति को देखने आया हूँ। निरीक्षण करने आया हूँ। मैं आपकी प्रकृति और मेरी प्रकृति के, किसी के भी दोष देखने नहीं आया हूँ, मैं तो प्रकृति का निरीक्षण करने आया हूँ। देखने और जानने आया हूँ।
प्रश्नकर्ता : और निर्दोषता क्या सहज होती है?
दादाश्री : वह सहज हो तभी उसे निर्दोष कहा जाएगा, नहीं तो निर्दोष नहीं कहा जा सकता। असहज हुआ अर्थात् दोषित।