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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
समझो तो बहुत हो गया। भूल को भूल समझना, वही बड़ा पुरुषार्थ है। प्रकृति तो रहती है, प्रकृति बदलती नहीं है, भाई! जो बन चुकी है, वह प्रकृति जाती नहीं है।
प्रश्नकर्ता : प्रकृति को देखने से क्या प्रकृति के दोष कम हो जाते हैं?
दादाश्री : उसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है न! अपनी भावना निकालने की हो तो कम हो जाती है और निकालने की भावना नहीं हो तो रहती है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन प्रकृति में तो कई अच्छे गुण भी हैं और कई खराब भी हैं।
दादाश्री : सभी निकालने हों तो सभी निकालना, नहीं तो सिर्फ कुछ खराब निकालना जो कि आपके लिए दु:खदाई हों।
होता है, प्रकृति के अनुसार __ अन्यथा बाकी सब तो हर एक की प्रकृति के अनुसार होता है। जिसकी जैसी प्रकृति उसी तरह से करना है। सभी लोग कहीं गीत नहीं गानेवाले हैं, वह तो कोई गायक हो तो गीत गाएगा। हर कोई अपनी प्रकृति के अनुसार काम करता है। उसमें भला क्या भूल निकालनी? वह अपनी कुशलता के अनुसार करता है। हर कोई अपनी कुशलता के अनुसार काम करता है। खुद की डिज़ाइन के अनुसार नहीं करवा सकते कि 'मेरी डिज़ाइन' के अनुसार ही तुझे 'चलना पड़ेगा,' ऐसा नियम नहीं
है।
अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार काम कर रहे हैं तो, उसमें भूल कहाँ हुई? क्या यह न्यायाधीश का डिपार्टमेन्ट है? हर कोई अपनी प्रकृति के अनुसार काम कर रहा है। मैं भी अपनी प्रकृति अनुसार काम करता रहता हूँ। प्रकृति तो रहती ही है न!
प्रश्नकर्ता : वही भूल जाते हैं कि सामनेवाला व्यक्ति कर्ता नहीं है।