________________
आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
खपे प्रकृति किस से? प्रश्नकर्ता : फिर आपने लिखा है कि कोई प्रकृति त्यागवाली होती है, कोई प्रकृति तपवाली होती है, कोई प्रकृति विलासी होती है। मोक्ष में जाने के लिए मात्र आपकी प्रकृति को खपाना है।' तो प्रकृति को खपाना अर्थात् क्या?
दादाश्री : वह ठीक है। प्रकृति खपाना अर्थात् अपनी प्रकृति को सामनेवाले के साथ अनुकूल करके (एडजस्ट करके), अनुकूल होकर समभाव से निकाल (निपटारा) करना।
प्रश्नकर्ता : इस विलासी प्रकृति को खपाना है और मोक्ष में किस तरह जाया जा सकता है?
दादाश्री : हाँ, उसे तो खपाकर ही जाया जा सकता है। यह सारा विलास ही है न? क्या जलेबी नहीं खाते? फिर हाफूस के आम नहीं खाते? ये सब नहीं खाते? यह सारा विलास ही है न! इसमें कौन सा विलास नहीं है? ये सभी जीवविलास हैं। कोई विलास गाढ़ होता है और कोई ज़रा हल्का होता है।
प्रश्नकर्ता : आदत और प्रकृति में क्या फर्क है?
दादाश्री : आदत, वह शुरुआत है। अगर आप आदत नहीं डालो तो प्रकृति वैसी ही रहती है। अगर आदत डालते हो तो फिर प्रकृति आदतवाली बन जाती है। अगर आप बार-बार चाय माँगते रहो, तो फिर आदत पड़ जाती है। पहले 'आप' आदत डालते हो और फिर आदत पड़ जाती है। आदत डालने और आदत पड़ जाने में फर्क है? हाँ? जब आदत डाल रहे हों तो छूट सकती है और अगर आदत पड़ जाए तो वह नहीं छूटती।
प्रश्नकर्ता : प्रकृति तो जन्म से ही लेकर आता है, ऐसा नहीं होता?
दादाश्री : हाँ, जन्म से ही लेकर आया है, और जन्म से ही है यह। 'जन्म से ही लेकर आया है,' मतलब यह नहीं है कि वह जन्म से ही स्थूल