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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
खट्टा खाना चाहिए और कितना नहीं खाना चाहिए वह नियम कहलाता है
दादाश्री : ये सभी नियम है। वह अपना काम है। वह तो अपना ज्ञान काम करता रहता है।
प्रकृति के सामने जागृति प्रश्नकर्ता : आप जो कहते हैं कि, 'कार्य करते जाओ,' उसके बजाय 'कार्य होने दो' वह ठीक है न?
दादाश्री : नहीं। 'कार्य करते जाओ' ऐसा कहने का अपना भावार्थ क्या है कि प्रकृति में जो कार्य है, उस कार्य को चलने दो। आप ऑबस्ट्रक्ट मत करो। आप तो अपने प्रयास में ही रहो।
प्रश्नकर्ता : कहने का मतलब यह है कि जो हो ही रहा है, उसे हम ‘ऐसा करो' कहते हैं लेकिन वह हो ही रहा है न?
दादाश्री : वह हो ही रहा है, लेकिन ऑबस्ट्रक्ट नहीं करने के लिए हम कहते हैं 'करो'। 'अब कुछ भी करने जैसा नहीं है, इसे ऑबस्ट्रक्शन कहते हैं। 'सबकुछ हो ही रहा है, अब कुछ भी करने जैसा नहीं है' ऐसा नहीं कहना चाहिए। प्रकृति को प्रकृति की तरह चलने दो, आप देखते रहो। इसीलिए ऐसा कहते हैं न कि 'खुल्ली आँखों से गाड़ी चलाओ!' बंद आँखों से गाड़ियाँ चलाते हैं क्या लोग? बंद आँखों से गाड़ियाँ चलाई जाती होंगी कहीं? उसी तरह इसे जागृति से चलाना है (ज्ञान दशा)।
ज्ञान लेने के बाद में गाड़ी बंद हो जाए तो हेन्डल लगाना चाहिए। पहले हेन्डलवाली गाड़ी आती थी न, गाड़ी बंद हो गई कि फिर से हेन्डल मारकर गाड़ी चालू कर देते थे। अतः आत्मा को हेन्डल मारो और पुद्गल को ब्रेक मत लगाओ। पुद्गल को ब्रेक लगा देते हैं कई लोग कि ऐसा नहीं कहेंगे तो चलेगा' ब्रेक नहीं लगाना चाहिए। पुद्गल को उसके मिज़ाज में ही चलने देना चाहिए। ब्रेक नहीं लगाना चाहिए कि 'व्यवस्थित' है न! 'ऐसा है और वैसा है।' ब्रेक लगाने की ज़रूरत क्या