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[११] प्रकृति किस तरह बनती है ?
निबेड़े की रीति अनोखी
ऐसा है हमेशा ही, यह दृष्टि तो कैसी है? यों बैठे हों तो हमें एक लाइट के बदले दो लाइटें दिखती हैं। आँख ज़रा यों हो जाए तो चीजें दोदो दिखाई देती हैं या नहीं? अब वास्तव में है तो एक ही फिर भी दो दिखती हैं। हम प्लेट में चाय पी रहे हों, तब भी कई बार प्लेट के अंदर जो सर्कल होता है न, वे दो-दो दिखते हैं । इसका क्या कारण है? दो आँखें हैं, इसलिए सबकुछ डबल दिखता है । ये आँखें भी देखती हैं और वे अंदरवाली आँखें भी देखती हैं। लेकिन वह मिथ्या दृष्टि है इसलिए वह सबकुछ उल्टा दिखाती है। यदि सीधा दिखाए तो सभी उपाधि (बाहर से आनेवाला दु:ख) रहित हो जाए, सर्व उपाधिरहित हो जाए । वीतराग विज्ञान ऐसा है कि सर्व दुःखों का क्षय करता है। यह विज्ञान ही ऐसा है कि सर्व दुःखों से मुक्त करता है । 'विज्ञान' ऐसा ही होता है, विज्ञान हमेशा क्रियाकारी होता है । अत: इस विज्ञान को जानने के बाद विज्ञान ही काम करता रहता है, आपको कुछ भी नहीं करना होता। जब तक आपको करना पड़े, तब तक बुद्धि है और जब तक बुद्धि है, तब तक अहंकार है और जब तक अहंकार है तब तक इसका निबेड़ा लाना हो तो भी नहीं आ सकता।
प्रश्नकर्ता : इस दृष्टि को बदलने की शुरुआत किस तरह हो सकती
है?
दादाश्री : दृष्टि बदलने की शुरुआत तो, जब 'ज्ञानीपुरुष' मिल जाएँ और उनके पास सत्संग सुनने जाएँ तो अपनी दृष्टि धीरे-धीरे बदलती है । अभी आप सुन रहे हो तो इससे आपकी दृष्टि थोड़ी-थोड़ी बदलती है। ऐसे करते-करते थोड़ा परिचय हो जाए, एकाध महीने का, दो महीनों का तो दृष्टि बदल जाती है। वर्ना ‘ज्ञानीपुरुष' से कहना कि, 'साहब, मेरी दृष्टि बदल दीजिए।' तो एक ही दिन में या एक घंटे में ही बदल देंगे !
प्रकृति जड़ है या चेतन ?
प्रश्नकर्ता : इस प्रकृति को क्या जड़ समझना है या चेतन समझना
है?