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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
दादाश्री : हाँ, प्रकृति स्वभाव है उसका। कर्तापन निज स्वरूप में नहीं है, आत्मा में नहीं है, आत्मा अक्रिय है। प्रकृति में जो पुद्गल परमाणु हैं, जो चार्ज हो चुके हैं, वे क्रियाशील हैं, सक्रिय हैं वे खुद। यह नहीं समझने से पूरी गाड़ी ही उल्टी चली। कौन कर रहा है' इतना समझ गए तो हमेशा के लिए हल आ जाएगा, नहीं तो हल नहीं आएगा।
'पुद्गल,' वह कोई जीवंत वस्तु नहीं है लेकिन वह 'आत्मा' के विशेष भाव को ग्रहण करता है और वैसा ही तैयार हो जाता है। अतः उसमें
भी परिवर्तन होता है। 'आत्मा को कुछ भी नहीं करना पड़ता।' 'उसका' विशेष भाव हुआ कि पुद्गल परमाणु खिंचे चले आते हैं, फिर वे अपने आप ही मूर्त हो जाते हैं और खुद का कार्य करते रहते हैं!
जगत् में किसी को भी करनेवाले की ज़रूरत नहीं है। इस जगत् में जो भी चीजें हैं, वे निरंतर परिवर्तनशील हैं। उनके आधार पर सभी विशेष भाव बदलते ही रहते हैं और नई ही तरह का दिखता रहता है सबकुछ!
___ इतना यदि समझ में आ जाए न तो ये सभी खुलासे हो जाएँगे। यह आत्मा जो अक्रिय है, उसे सक्रिय बना दिया कि 'यह मैंने किया' और प्रकृति सक्रिय है, उसे इन लोगों ने 'जड़' कह दिया।
फर्क, प्रकृति और कुदरत में प्रश्नकर्ता : प्रकृति क्या है? कुदरत क्या है? यह समझाइए।
दादाश्री : जो कुदरत परिणमित हुई, वह प्रकृति कहलाती है। H2 और O दोनों जुदा हों तब कुदरत कहलाती है और दोनों एक हो जाएँ और पानी बन जाए तो वह प्रकृति कहलाती है।
अर्थात् प्रकृति भिन्न और कुदरत भिन्न है। प्रकृति में पुरुष का व्हॉट है। प्रकृति पुरुष के व्हॉटवाली है और कुदरत में पुरुष का व्हॉट नहीं है। वह साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स है।
अपना शरीर बन गया है पाँच धातुओं के मिलाप होने से, वह प्रकृति कहलाती है और जब धातु अलग-अलग हों तो उसे कुदरत कहते हैं। जब